Chapter 5 Shloka 22

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:।।२२।।

Pleasures that originate from sense contacts

are a source of misery.

O Arjuna! These are temporary, they come and go.

A wise man does not indulge in them.

Chapter 5 Shloka 22

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:।।२२।।

Bhagwan says:

Pleasures that originate from sense contacts are a source of misery. O Arjuna! These are temporary, they come and go. A wise man does not indulge in them.

1. All material pursuits that originate from sense contacts necessarily produce excessive attachment and repulsion.

2. They give birth to attachment, desires and greed.

3. They give rise to uncountable, unfulfilled cravings.

4. They increase perturbance and remorse in the mind.

5. They corrupt the mind.

6. They give rise to jealousy and hatred.

Dukh Yoni (दु:ख योनियाँ) – Incarnations of misery

Therefore it can be said that these pursuits produce only sorrow. Through indulgence in these:

a) the individual ultimately only gains anguish;

b) mental perturbance increases his grief;

c) he is plagued by conflict;

d) the fetters of moha confuse his mind.

When desires remain unfulfilled, anger erupts, giving rise to sorrow. When the intellect thus becomes unsteady, the individual becomes troubled and undecided about his path of duty. In one lifetime he undergoes so many incarnations filled with misery.

The Lord says, “O Arjuna! The wise do not indulge in seeking pleasures of such temporary nature which end in no time.”

1. They know that attachment with worldly objects is a cause of sorrow.

2. To obtain the object of one’s attachment will inevitably bring anguish and when one loses that object, the result is sorrow.

3. Meeting with what one dislikes produces agony as well.

Little one! What happiness can there be for one who is dependent on external objects? Whatever pleasures you get, will end on account of the impermanent nature of objects.

Na ramte Buddhah (न रमते बुध:)

Therefore the wise man of knowledge, knowing the truth about objects:

a) renounces all attachment with such sense objects at the very outset;

b) seeks no transient joy from such indulgences;

c) does not get absorbed in such pleasures;

d) remains ever untouched and indifferent.

Knowing all this, the man of wisdom remains free of attachment.

अध्याय ५

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।

आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:।।२२।।

भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. निश्चय ही विषय सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले उपभोग

२. सम्पूर्ण दु:ख योनियाँ ही हैं।

३. हे अर्जुन! ये आदि अन्त वाले हैं।

४. बुद्धिमान् इनमें नहीं रमता।

तत्व विस्तार :

उपभोग के परिणाम :

विषय सम्पर्क से उत्पन्न होने वाले सम्पूर्ण उपभोग :

1. राग द्वेष उत्पन्न करने वाले हैं।

2. संग, तृष्णा, और लोभ उत्पन्न करने वाले हैं।

3. अनन्त और अतृप्त कामनाओं को उत्पन्न करने वाले हैं।

4. चंचलता और क्षोभ को उत्पन्न करने वाले हैं।

5. मन मलिन करने वाले हैं।

6. ईर्ष्या और वैर उत्पन्न करने वाले हैं।

दु:ख योनियाँ :

इस नाते वह उपभोग केवल दु:ख देने वाले उद्गार उत्पन्न करने वाले हैं। इन्हें भोग कर जीव :

क) अन्त में व्याकुल ही हो जाता है।

ख) विक्षिप्त होकर दु:खी हो जाता है।

ग) संकल्प विकल्प पूर्ण हो जाता है।

घ) मोह ग्रसित हो विभ्रान्त मनी हो जाता है।

जब चाहना पूर्ण न हो तो क्रोध भी आ जाता है, तब दु:ख भी उत्पन्न हो जाता है। जब बुद्धि डोल जाती है तो भी जीव दु:ख योनि में पड़ जाता है। किंकर्तव्य विमूढ़ जीव दु:ख ही दु:ख पाता है। मानो एक ही जन्म में वह अनेकों दु:ख योनियों को भोगा करता है।

भगवान ने कहा, हे अर्जुन! इस आदि अन्त वाले विषय उपभोग में बुद्धिमान् विद्वान् रमण नहीं करते, क्योंकि वह जानते हैं:

1. बाह्य विषय उपभोग से संग दु:ख का ही कारण है।

2. जहाँ संग हो गया, उसकी प्राप्ति के लिये मन तड़पेगा ही।

3. जहाँ रुचिकर का वियोग होगा, बिछुड़न का दर्द सतायेगा ही।

4. जहाँ अरुचिकर मिल गया तो जीव वैसे ही तड़प जायेगा।

नन्हीं! विषयों पर आश्रित रहे तो सुख चैन कैसे मिल सकता है? फिर जो उपभोग मिलते भी हैं वह बिछुड़ जाते हैं, क्योंकि सब विषय आदि और अन्त वाले होते हैं।

‘न रमते बुध:’ अर्थात् इनकी सत्यता जानकर विद्वान गण :

क) इनसे पहले ही संग नहीं करते,

ख) इनमें खो नहीं जाते,

ग) इनसे ही आनन्दित नहीं होते,

घ) इनमें ठहर नहीं जाते,

ङ) उपभोग को प्रधानता नहीं देते,

च) इनमें अत्यन्त अनुरक्त नहीं होते।

यह सब जानते हुए ज्ञानी जन नित्य निर्लिप्त रहते हैं।

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