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Chapter 5 Shloka 17
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:।।१७।।
O Arjuna! Those whose mind and intellect are absorbed
in the Supreme Atma and who abide in Him one-pointedly,
being completely identified with Him,
their sins are washed away with knowledge.
For them there is no return.
Chapter 5 Shloka 17
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:।।१७।।
O Arjuna! Those whose mind and intellect are absorbed in the Supreme Atma and who abide in Him one-pointedly, being completely identified with Him, their sins are washed away with knowledge. For them there is no return.
Tadbudhayah (तद्बुद्धय)
Those whose mind and intellect are wholly merged in the Supreme:
a) They are repositories of knowledge and radiate that knowledge in their lives.
b) They finally become one with the Supreme.
c) Where is there any need for them to study the Scriptures, when they embody the Scriptures and manifest their essence in their life?
d) Where is there any need for them to meditate on the knowledge, when their life forms the very foundation of that knowledge?
e) What need they say to anybody, when they themselves are the entire world?
f) They are Eternal Light – Atma Itself – the Manifest Lord Himself.
g) That Indestructible One abides in a perishable body.
h) Established in non-duality, all beings are his very own Self.
i) He is Divine, Pure Consciousness Itself.
Little one!
1. The intellect of such a one reflects the divine luminescence of the Supreme Intellect.
2. It is constantly identified with the other’s level of understanding.
3. Such a one is an embodiment of knowledge.
4. Such a one is a live manifestation of the Scriptures.
5. The knowledge he imparts is extremely ordinary yet quite unique.
6. He speaks the highest knowledge in simple language that can be understood by all.
7. His intellect is ever detached, he is a Sthit Pragya.
8. His intellect is not of this mundane world, it is transcendental and divine.
Tat Atmanah (तत् आत्मन)
He whose mind is identified with the Supreme Atma, his mind has been quelled.
a) He is silence itself.
b) He is free of all attachment.
c) He is ever satiated.
d) He is indifferent towards his own self.
e) He is free from hopes and expectations.
f) Having attained a state of silence, he becomes selfless and devoid of moha.
g) When the mind resembles that of the Supreme Atma, it becomes devoid of strong likes and dislikes.
h) Such a one is dependent on nobody.
i) He is egoless and identified with the one before him.
j) He no longer possesses any personal attributes – he lives in identification with others.
k) The silent mind of such a divine, extraordinary being is filled with love.
l) His mind is no more, in its place is the Lord’s mind.
m) The whole world resides in his magnanimous heart – he embraces all, regardless of concept or creed.
Tat nishtha (तत् निष्ठा)
1. Such a one has complete faith in the Supreme Lord.
2. Such a one has extreme devotional attachment to the Lord.
3. Thus he becomes one with Him.
4. His life pattern is like that of the Lord in whom he is ever merged.
He has transcended the body, so much so that it is now impossible for him to consider himself the body. Just as the ignorant being can never consider himself to be the Atma, so also the One who abides in the Truth can never even think of self establishment or the establishment of his body, mind and intellect unit. He is egoless and devoid of any thought of ‘I’ and ‘mine’. He belongs to all. He has no demands on others.
Tat Parayanah (तत् परायण) (See also Chp.4, shloka 39)
1. He is completely dependent on and in tune with the qualities of the Lord.
2. His life demonstrates those Supreme gunas.
3. He has attained the Supreme gunas in his life.
4. He embodies the tenets of the Scriptures.
5. He is firmly established in the Atma.
Such a one can have no feeling of doership, nor can he consider himself to be the ‘enjoyer’ or partaker of the material world.
Little one, in life such a one:
a) is ever ready to embrace a sinner;
b) uplifts the fallen and protects the needy;
c) renders the impure, pure;
d) assuages the sorrow of the destitute;
e) protects the reputation of the other even at the risk of losing his own;
f) saves the other at the risk of ruining himself;
g) becomes a servant for the other’s establishment.
For such a one, no job is too high or too low. He cares not whether the other is wealthy or poor, a saint or a sinner, a brahmin or an outcast – he gives himself equally to all. He seeks no pedestal, nor is he attached to any particular way of life. His actions are most ordinary, but it is erroneous to say he performs all actions, for he is not the doer. He is ‘unborn’ because birth pertains to the body, which he is not.
Such a person, whose sins have been destroyed through knowledge, does not return from his elevated state.
Apunravriti (अपुनरावृत्ति)
1. From which there is no return.
2. There is no re-claiming of the body.
3. There is no re-attaining one’s individualism or ego.
4. Neither does such a one attach himself to his mind or intellect ever again.
He abides in bliss. Why would such a one ever wish to embrace sorrow again? Why would the Eternal wish to embrace death again? He who is Truth Itself would never return to the untrue again.
अध्याय ५
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: ।
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:।।१७।।
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! परमात्मा के तद्रूप हैं जिनके बुद्धि तथा मन,
२. और जो उसी में एकाकी भाव से स्थित हैं,
३. उसी के परायण हैं,
४. जिनके पाप ज्ञान से धुल गये हैं,
५. उनका लौटना नहीं होता।
तत्व विस्तार :
‘तद्बुद्धय’ :
जिनकी बुद्धि परमात्मा के तद्रूप हो गई,
क) वे ज्ञान घन ही हो गये।
ख) वे विज्ञान घन ही हो गये।
ग) वे ज्ञान विज्ञान के प्रकाश स्वरूप स्वयं ही हो गये।
घ) वे परम रूप ही हो गये।
ङ) शास्त्र पढ़कर वे क्या करें जब पूर्ण शास्त्र तथा शास्त्र सार वे आप हैं?
च) ज्ञान को अब वे ध्यायें क्या, ज्ञान आधार वे आप हैं।
छ) किसी को अब वे क्या कहें, पूर्ण संसार वे आप हैं।
ज) नित्य प्रकाश, विज्ञान स्वरूप, आत्म रूप वे आप हैं।
झ) साकार प्रतिमा राम की, निराकार भी वे आप हैं।
ञ) नित्य अविनाशी अक्षर वह, क्षर तन वासी वे आप हैं।
त) अखण्ड अद्वैत में नित्य रहें, अखिल तन वे आप ही हैं।
थ) दिव्य, विशुद्ध, चेतन स्वरूप, रूप रहित वे आप हो जाते हैं।
नन्हीं! ऐसे की बुद्धि की क्या बात कहें जो दिव्य प्रकाश स्वयं आप ही हैं?
1. उनकी बुद्धि भगवान के समान ही होती है।
2. उनकी बुद्धि नित्य दूसरे की स्थिति के अनुकूल ही बहती है।
3. वे तो स्वयं ज्ञान घन होते हैं।
4. वे तो स्वयं ज्ञान स्वरूप ही होते हैं।
5. उनका अपना जीवन ज्ञान का प्रमाण ही होता है। वे तो स्वयं ही शास्त्र की प्रतिमा हैं।
6. उनका ज्ञान अतीव साधारण किन्तु महा विलक्षण होता है।
7. उनके ज्ञान की भाषा भी साधारण तथा प्रचलित होती है।
8. उनकी बुद्धि नित्य निरासक्त, स्थित प्रज्ञ ही होती है।
9. उनकी बुद्धि लौकिक नहीं, अलौकिक ही होती है।
‘तत् आत्मन:’
जिसका मन परमात्मा के तद्रूप हो गया उसका मन ही नहीं रहता। यानि :
क) वह मौन स्वरूप हो जाता है।
ख) वह निरासक्त हो जाता है।
ग) वह नित्य तृप्त हो जाता है।
घ) वह उदासीन हो जाता है।
ङ) वह आशा रहित हो जाता है।
च) उसका मन जब मौन हो जाता है तब वह निर्मम और निर्मोह हो जाता है।
छ) परम के समान जब मन हो जाये तब वह राग और द्वेष से रहित हो जाता है।
ज) तब वह निराश्रित हो जाता है।
झ) तब वह निरहंकार हो जाता है।
ञ) जो आये सामने, वह उसके तद्रूप हो जाता है।
त) तब उसके पास निजी लौकिक गुण नहीं रह जाते, वह दूसरों के मन के तद्रूप होकर ही जीवन में विचरता है।
थ) ऐसे दिव्य, अलौकिक, मन रहित मन वाले का मन प्रेम पूर्ण ही होता है।
द) नन्हीं! उसका मन ही नहीं होता, उसकी जगह भगवान का मन होता है।
ध) उसका हृदय इतना विशाल होता है कि उसमें संसार भर के लोगों की मान्यतायें समा जाती हैं।
‘तत् निष्ठा:’
अर्थात् उसी परमात्मा में ही :
1. उसकी आस्था होती है;
2. उसका घनिष्ठ अनुराग होता है;
3. वह नित्य स्थित होता है;
4. वह एक रूप होता है;
5. उसी परमात्मा की ओर संकेत करने वाला उसका जीवन होता है;
6. वह नित्य आत्म स्वरूप में ही स्थित होता है।
वह तनत्व भाव से इतना दूर जा चुका होता है कि वह अपने को तन मान ही नहीं सकता। जैसे साधारण अज्ञानी अपने को आत्मा नहीं मान सकता, वैसे ही सत् निष्ठ का लोगों के दृष्टिकोण में अपने तन, मन या बुद्धि की स्थापना का कभी प्रश्न ही नहीं उठता।
यदि देखा जाये तो उसमें हमेशा ‘मैं’ का अभाव ही होगा। उसके दृष्टिकोण में ममत्व का नितान्त अभाव होता है। वह तो सबका होता है, किन्तु वह स्वयं किसी पर हक़ नहीं रखता।
‘तत् परायण:’ (तत्परायण का अर्थ ४/३९ में देख लें।)
तत्परायण का अर्थ होगा :
क) भागवत् गुणों के परायण हुआ;
ख) भागवत् गुणों के आश्रित हुआ;
ग) जीवन में भागवत् गुणों को प्रमाणित करने वाला;
घ) जीवन में भागवत् गुणों की सिद्धि पाया हुआ;
ङ) जीवन में गुणों की प्रतिमा का रूप धारण किये हुए;
च) जीवन में शास्त्रों की प्रतिमा का रूप धारण किये हुए;
छ) आत्मा में निरन्तर स्थित हुआ।
नन्हीं! जो आत्मा के परायण होगा, वह तनत्व भाव से परे होगा ही। वह तो कर्तृत्व भाव से परे होगा ही। वह भोक्तृत्व भाव से भी परे होगा।
ले नन्हीं आत्मा! ऐसे के जीवन को भी ज़रा देख ले।
वह जीवन में :
1. दुष्ट को भी अंगीकार करने वाला होगा।
2. पापी को भी अपनाने वाला होगा।
3. पतितों को भी अपनाने वाला होगा।
4. अशरण को भी शरण देने वाला होगा।
5. अपावन को पावन करने वाला होगा।
6. दु:खी का दु:ख हरने वाला होगा।
7. स्वयं बदनाम होकर भी दूसरे की इज्ज़त बचाने वाला होगा।
8. स्वयं तबाह होकर भी दूसरों को बसाने वाला होगा।
9. वह स्वयं चाकर बनकर दूसरों को स्थापित करने वाला होगा।
10. लोगों के मान की रक्षा के लिये अपना सम्पूर्ण मान गंवा देगा।
ऐसे के लिये :
क) न्यून या उच्च कर्म में कोई फ़र्क नहीं।
ख) धनवान या निर्धन में कोई फ़र्क नहीं।
ग) सन्त या दुष्ट में कोई फ़र्क नहीं रखते।
घ) ब्राह्मण या हरिजन में कोई फ़र्क नहीं।
ऐसे आत्मवान् का कोई आसन नहीं होता और वह किसी जीवन पद्धति से संग नहीं करता।
नन्हीं! वह सब कुछ वैसे ही करता है जैसे साधारण जीव करते हैं; किन्तु यह कहना कि ‘वह सब करता है’, वास्तव में मूर्खता है, क्योंकि वह कर्ता तो है ही नहीं।
यह तो एक आत्मवान्, नित्य निराकार के साकार रूप की बात है। उनका तो जन्म ही नहीं हुआ, क्योंकि जन्म तो तन का था, वह तो तन है ही नहीं।
ऐसों का लौटकर आना ही नहीं होता। ऐसों के सारे पाप, ज्ञान की राह से नष्ट हो गये होते हैं।
अपुनरावृत्ति :
अपुनरावृत्ति का अर्थ है :
1. लौट कर आना नहीं होता;
2. वे पुन: तन को नहीं अपनाते;
3. वे पुन: जीवत्व भाव और अहंकार को ग्रहण नहीं करते।
4. वे पुन: मन या बुद्धि से संग नहीं करते।
नन्हीं! वे तो नित्य आनन्द स्वरूप हैं। जानबूझ कर दु:खों को कौन मोल लेता है?
‘अमर’ मृत्यु को क्यों अपनायेगा?
‘सत् स्वरूप’ असत् को क्यों अपनायेगा?