Chapter 5 Shloka 13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।।

Doubtless, he who has his body, mind and senses

well under control, who neither does anything

nor gets anything done by others, that One,

having renounced all actions mentally, abides

in bliss in his bodily abode with the nine gates.

Chapter 5 Shloka 13

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।।

Describing the state of a Yogi to Arjuna, the Lord now says:

Doubtless, he who has his body, mind and senses well under control, who neither does anything nor gets anything done by others, that One, having renounced all actions mentally, abides in bliss in his bodily abode with the nine gates.

‘Renouncing all actions mentally’

Little Sadhika, understand carefully!

1. The Lord is exhorting Arjuna to renounce actions mentally.

2. Attachment is the fetter and it is the mind that gets attached.

3. It is the mind that desires various objects and it is the mind which is the cause of happiness and sorrow.

4. It is the mind that claims doership.

5. The mind is the cause of greed and craving.

6. Ignorance, untruth, attachment – all these dwell in the mind.

7. The actual actions are the actions of the mind. The external actions happen on their own, dictated by the gunas.

8. Therefore the mind is the cause of bondage as well as liberation.

Gross qualities continue to interact with other gross qualities. The mind unnecessarily becomes attached.

a) Gross actions do not bind the individual – when his internal mind acts, those actions become his fetters.

b) External deeds continue to transpire spontaneously, guided by the gunas and by one’s nature.

c) It is not in the individual’s hands to change his external circumstances. All he can change is his mind.

Knowing that actions originate in the mind, why remain deluded by the external world? If you must do something, purify your mind; if you must do something, pursue your sadhana. Understand the interplay of the gunas, know that in the external sphere, no one can do anything – nor can one get anyone to do anything. All external happenings are controlled by the gunas.

The Atma lives in the mansion of nine gates – the body. And you are the Atma in that body. You are not the doer, nor can you persuade another to do anything. Remember this and you too, will be able to abide in your ‘mansion of the nine gates’ with detached bliss, as does the Atmavaan. You will not then identify with the body. You will only be a resident in it.

Navdwaar (नवद्वार) – The nine gates

The nine gates of this bodily abode are: two eyes, two ears, two nostrils, one mouth, two exits for excretion. Know that this bodily abode is only your dwelling place, why do you believe that you are this abode?

Little one, those deeds that are happening in the world of your mind will create the seeds of your next birth:

a) attachment and greed;

b) desires and cravings;

c) ignorance and moha;

d) anger and pride;

e) harshness and the desire for revenge;

f) sharpness and sternness;

g) selfishness and self pity;

h) self commendation based on illusion;

i)  deceit and pretence;

j)  escapist tendencies;

k) criticism and censure;

l)  hatred and slander;

m)   ingratitude and insensitivity etc.,

all are complexes and attributes of the mind.

Little one, these are the misdeeds of the jiva – his enemies which will cause him injury. Your external actions and nature, which you mistakenly judge as ‘good’ and ‘bad’, have no significance. In actual fact, where gross actions are concerned, you must find out:

1. Why did you do it and for whom?

2. What was the purpose of that deed?

3. By which mental attribute was it motivated?

4. Who would get the repercussions of that action?

5. What do you wish to prove through that action?

6. Whom do you seek to establish through that action?

7. What inner desire inspired it?

The answer to these questions will show you the true status of your deed. Each action can have three hues. Your deed is tamsic, rajsic or sattvic, depending on your mental state. Remember, that the action, which creates the seed of your future destiny, is an internal action performed by the mind.

अध्याय ५

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।।१३।।

अर्जुन को योगी की स्थिति दर्शाते हुए, अब भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. तन, मन, बुद्धि और इन्द्रियों को वश में किये हुए,

२. पुरुष निस्संदेह न कुछ करता हुआ और न कुछ करवाता हुआ,

३. सब कर्मों को मन से त्याग कर,

४. नौ द्वारों वाले शरीर रूप घर में,

५. आनन्द पूर्वक रहता है।

तत्व विस्तार :

मन से त्याग :

नन्हीं साधिका! ध्यान से देख!

1. भगवान मन से त्याग करने को कहते हैं।

2. संग ही बन्धन कारक है और मन ही संग करता है।

3. मन ही कहता है ‘यह मिले यह न मिले’।

4. मन ही दु:खी सुखी करता है।

5. मन ही कर्मों को अपनाता है।

6. तृष्णा, लोभ मन से ही उत्पन्न होते हैं।

7. अज्ञान, असत्, संग, मन के कारण ही और मन में ही वास करते हैं।

8. वास्तविक कर्म तो मन ही करता है। बाह्य कर्म तो होते जाते हैं, गुण स्वत: ही करवा लेते हैं।

9. मन ही बान्धता है, तथा मुक्त करवाने वाला भी मन ही है।

स्थूल गुण गुणों में वर्त रहे हैं, मन नाहक वहाँ संग कर लेता है। तो क्यों न कहें :

क) जीव के बाह्य कर्म बन्धन कारक होते ही नहीं, आन्तरिक मन जब कर्म करे, तो वह कर्म बन्धन कारक बन जाते हैं।

ख) बाह्य तो रेखा रचित, स्वभाव बंधा, सब स्वत: ही होता है। बाह्य कर्म तो गुण बन्धे होते हैं।

ग) जीव अपना आन्तर ही बदल सकता है, स्थूल बदल नहीं पाता है।

सो मनो कर्म ही कर्म है, स्थूल में क्यों भरमाता है? कुछ करना है तो मन को साध, यही तुम्हारे हाथ में हो सकता है। कुछ करना ही है तो साधना कर, कर्मों को गुण खिलवाड़ जान ले। बाह्य जहान में न कोई कुछ करता है, न कोई किसी से कुछ करवाता है। गुण गुणों में वर्त रहे हैं और सब स्वत: ही होता जाता है।

आत्मा नवद्वार वाले शरीर में रहता है और तू वह आत्मा है। तू तो न कुछ करता है, न करवाता ही है। इसे जान लो और मान लो, फिर तुम भी आत्मवान् के समान इस तन में सुख से रह सकते हो। फिर तुम नवद्वार वाले तन रूपा घर में रहोगे, स्वयं तन नहीं बन जाओगे।

नवद्वार :

दो आँखें, दो कान, दो नासिका, एक मुख, दो मल के मूत्र के स्थान वाले इस तन को अपना घर जान लो। यह आप स्वयं हो, यह क्यों मानते हो?

नन्हीं! जो आपके मनोलोक में हो रहा है, वह ही आपके कर्म हैं, जो आपके अगले जन्म के बीज बना देंगे।

क) संग, मन का ही विकार है।

ख) लोभ, मन का ही विकार है।

ग) कामना, तृष्णा मन में ही वास करते हैं।

घ) मोह, अज्ञान इत्यादि भी मन में ही हैं।

ङ) क्रोध, अभिमान इत्यादि मन में ही हैं।

च) कुटिलता और बदले की भावना भी मन में ही रहती है।

छ) मनो आवेश तथा उद्विग्नता भी मन में ही रहते हैं।

ज) तीक्ष्णता तथा कठोरता भी मन से ही उत्पन्न होते हैं।

झ) स्वार्थ, और अपने प्रति तरस की भावना भी मन में ही रहते हैं।

ञ) मिथ्या सिद्धान्तों के आसरे अपने आपको दोष विमुक्त करने वाली वृत्ति, यानि भावना भी मन में ही रहती है।

ट) पाखण्ड, धोखेबाज़ी इत्यादि भी मन में ही रहते हैं।

ठ) दोषारोपण करने वाली वृत्ति का निवास स्थान भी यह मन ही है।

ड) समालोचना, मान हानि कारक तथा द्वेष रूपा वृत्तियाँ भी मन में ही वास करती हैं और वहीं पलती हैं।

ढ) पलायनकर वृत्तियाँ भी मन में ही होती हैं।

ण) कृतघ्नता तथा रूखापन भी तो मन में ही रहता है।

नन्हीं लाडली! यही जीव के दुष्कर्म होते हैं, यही जीव के आत्मघाती वैरी होते हैं। बाह्य कर्म तथा स्वभाव, जिसे तुम बुरा भला कहती हो, वह वास्तव में कोई अर्थ नहीं रखते। देखना तो यह है कि जो भी स्थूल कर्म दिख रहा है वह :

1. आपने क्यों किया?

2. आपने किसके लिये किया?

3. प्रेरित किस वृत्ति से हुआ?

4. वह कर्म, जब हो जायेगा, तो फल किसको मिलेगा?

5. आप उस कर्म राही क्या सिद्ध करना चाहते थे?

6. आप उस कर्म राही किसे स्थापित करना चाहते थे?

7. आपकी कौन सी आन्तरिक चाहना उसे प्रेरित कर रही थी।

यही स्थूल कर्म का रूप रंग दर्शायेंगे। आपका कर्म आपकी मनोस्थिति पर आधारित है। आपका कर्म तामसिक है, सात्त्विक है, या रजोगुणी है, यह आपकी मनोस्थिति पर आधारित है। हर कर्म के तीन रंग हो सकते हैं। यह जान ले कि वास्तविक कर्म, जो बीज बनता है, वह मन ही करता है। वही आपको मिलता है।

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