Chapter 4 Shloka 38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत् स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति।।३८।।

Now the Lord says, O Arjuna!

There is no greater purifier

in this world other than knowledge.

One who has reached perfection through Yoga,

experiences the accomplishment of Yoga

within himself in the course of time.

Chapter 4 Shloka 38

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत् स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति।।३८।।

Now the Lord says, O Arjuna!

There is no greater purifier in this world other than knowledge. One who has reached perfection through Yoga, experiences the accomplishment of Yoga within himself in the course of time.

My little seeker of Yoga, the Lord first says, that there is nothing in this world more purifying than knowledge.

Why did the Lord make this statement?

1. Only knowledge can destroy ignorance.

2. Only knowledge can banish ignorance and transform it into knowledge.

3. Only knowledge can rid one of the falsehood of attachment to the body.

4. Only knowledge can uproot the iniquity of moha.

5. Only knowledge can turn a selfish attitude into a selfless one.

6. Only knowledge can wash away the foulness of the mind.

7. Only knowledge can annihilate the illusion of the body idea.

8. Only knowledge can annihilate the ego that says ‘I am this body’.

9. Only knowledge can elevate the individual to Godhood.

What then can be greater than knowledge? Knowledge is the purifier, knowledge is purity itself.

Now the Lord says that one who achieves perfection in Yoga, experiences that perfection within himself in the course of time.

Little one!

1. The daily existence of the Atmavaan resembles that of an ordinary person.

2. In the course of time, an Atmavaan begins to experience the effects of the attainment of Yoga.

3. However, proof of the substantiation of that Yoga in one’s life can take some time. It is comparatively simple to remain silent for one day; but proof of internal silence can only come after one has retained that ‘silence’ for a length of time.

4. It is easy to be indifferent to one’s body for a short while, but proof of complete detachment can only come after a span of time.

5. One may tolerate defamation or insult for some time, but a state of equanimity can only be experienced by unceasing detachment towards both insult and praise.

Experience follows only after a state is achieved. This experience can only come from one’s own example, and only when one has given proof in one’s life of having transcended the body idea. It takes some time for such proof to be forthcoming.

An Atmavaan remains silent about his state, until he has experienced it in his everyday life. Nor does he attempt to preach knowledge to the world.

अध्याय ४

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत् स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति।।३८।।

अब भगवान कहते हैं, कि हे अर्जुन :

शब्दार्थ :

१. इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला और कुछ भी नहीं है।

२. योग से सिद्ध हुआ पुरुष,

३. कुछ समय पाकर,

४. अपने में ही योग संसिद्धि अनुभव करता है।

तत्व विस्तार :

मेरी नन्हीं योग अभिलाषिणी आभा! अब भगवान कहते हैं कि नि:सन्देह इस संसार में ज्ञान के सदृश पावन करने वाला कुछ भी नहीं है।

भगवान ने यह क्यों कहा, पुन: समझ ले :

क) ज्ञान ही अज्ञान का नाश कर सकता है।

ख) ज्ञान ही अज्ञान को दूर करके ज्ञान में परिणित कर सकता है।

ग) ज्ञान ही आसक्ति रूपा असत् को मिटा सकता है।

घ) ज्ञान ही मोह रूपा पाप की जड़ को मिटा सकता है।

ङ) ज्ञान ही सकामी को निष्काम रूप बना सकता है।

च) ज्ञान ही मनोमल को धो सकता है।

छ) ज्ञान ही तनत्व भाव रूपा मिथ्यात्व को मिटा सकता है।

ज) ज्ञान ही ‘मैं तन हूँ’ के अहंकार को मिटा सकता है।

झ) ज्ञान ही जीव को भगवान बना सकता है।

तुम ही बताओ इस ज्ञान से श्रेष्ठ क्या होगा? यह पावन करने वाला है, यह पावनता ही है। अब भगवान कहते हैं कि योग सिद्धि पाया हुआ पुरुष, कुछ समय पाकर योग सिद्धि का अनुभव करता है।

नन्हीं!

1. आत्मवान् की दिनचर्या, साधारण विधि से ही चलती रहती है।

2. योग में स्थित होने के पश्चात् आत्मवान् को अपने ही जीवन में योग स्थित के प्रमाण मिलने लगते हैं।

3. किन्तु स्थिति की परिपक्वता का प्रमाण मिलते हुए समय लगता है। एक दिन मौन रहना आसान है; यदि कुछ काल तक निरन्तर मौन रह सकें, तो ही ‘मौन’ रहने का प्रमाण मिल सकता है।

4. कुछ दिन के लिये अपने तन के प्रति उदासीनवत् रहना आसान है, कुछ काल तक निरन्तर उदासीनवत् रहे तो जानें कि निरन्तर उदासीनता क्या है?

5. कुछ पल के लिये अपमान सहना आसान है, निरन्तर मान अपमान के प्रति उदासीन रहें, तब समत्व में स्थिति का अनुभव होता है।

अनुभव स्थिति हो जाने के पश्चात् होता है और अपने ही प्रमाण से होता है। अनुभव तब होता है जब अपने ही तनत्व भाव का अभाव अपने ही जीवन में प्रमाणित हो।

नन्हीं! यह प्रमाण कुछ काल में मिलता है। वास्तव में जब तक उसके अपने ही सहज जीवन में उसे अनुभव न हो जाये, तब तक आत्मवान् मौन ही रहते हैं। वे जग में जाकर किसी को ज्ञान नहीं देते।

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