अध्याय ४
काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:।
क्षिप्रं ही मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा।।१२।।
देख नन्हीं! अब भगवान एक और बात कहते हैं।
शब्दार्थ :
१. इस मनुष्य लोक में,
२. कर्मों के फल चाहते हुए लोग देवताओं को पूजते हैं;
३. क्योंकि, मनुष्य लोक में कर्म जम सिद्धि शीघ्र होती है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! भगवान अब कहते हैं, ‘जो लोग कर्मों का फल चाहते हैं, वह देवताओं को पूजते हैं, क्योंकि कर्मों से उत्पन्न हुई सिद्धि शीघ्र ही होती है।’
इसे ज़रा ध्यान से समझना कि देवता कौन होते हैं और देवता के कर्म कैसे होते हैं, देवता संसार के प्रति कैसा दृष्टिकोण रखते हैं और देवता अपने प्रति कैसा दृष्टिकोण रखते हैं?
देवता (देवता के लिये सन्दर्भ 3/11,12)
क) ‘देवता’, ब्रह्म की विभिन्न शक्तियों को कहते हैं।
ख) इन्ही शक्तियों के प्रतीक जीव के तन में भी होते हैं।
ग) साधारण जीव की अपनी शक्ति अपनी तनो कामना पूर्ति के लिये इस्तेमाल होती है तो वह क्षीण हो जाती है तथा अशुद्ध हो जाती है। देवता वे लोग है जो :
1. अपने तन की सम्पूर्ण शक्ति को परमार्थ के लिये इस्तेमाल करते हैं।
2. अपने तन की सम्पूर्ण शक्ति से निष्काम कर्म करते हैं।
3. अपने तन की सम्पूर्ण शक्तियों से यज्ञमय काज करते हैं।
4. वे दैवी सम्पदा पूर्ण होते हैं।
दैवी सम्पदा पूर्ण के चिह्न :
क) दानशीलता तथा उदार हृदय।
ख) तप पूर्ण तथा सहिष्णुता पूर्ण।
ग) स्वच्छ तथा निर्मल चित्त।
घ) अनुकम्पा पूर्ण तथा करुणामयी।
ङ) औरों के विपद् विनाशक।
च) दया और क्षमापूर्ण।
छ) सौम्य तथा सर्व हितकर।
वे सब के कार्य करने वाले होते हैं। ऐसे देवता लोग स्वयं तो यज्ञशेष (यज्ञशेष के लिये सन्दर्भ 3/12,13) ही खाने वाले होते हैं। देवताओं की शक्ति यज्ञमय कर्मों में निहित होती है। कामना पूर्ण लोग अपनी कामनाओं की पूर्ति चाहते हुए देवताओं का पूजन करते हैं। वे देवता गण से अपने कार्य की सिद्धि में सहायता चाहते हैं और देवता भी उनको कार्य सिद्धि में सहायता देते हैं।
कर्मों में सिद्धि शीघ्र होती है। इस कारण सकामी जीव इन देवताओं की शक्ति की उपासना करते हैं। यहाँ सिद्धि का अर्थ कार्य सिद्धि है। कार्य सिद्धि ही सकाम जीव का लक्ष्य होता है और उसमें साधु लोग और देवता गण उसकी मदद करते हैं।
साधक :
नन्हीं! साधक किसी से उसकी शक्ति को नहीं माँगते।
क) साधक तो स्वयं निष्कामता तथा देवत्व का अभ्यास कर रहे होते हैं।
ख) साधक तो स्वयं तप करने का अभ्यास कर रहे होते हैं।
ग) साधक तो अपने जीवन को यज्ञमय बनाने के यत्न कर रहे होते हैं।
घ) साधक स्वयं तनत्व भाव के अभाव का अभ्यास कर रहे होते हैं।
इस कारण, साधक को तो कुछ पाना नहीं होता। उसे मान, ऐश्वर्य, वैभव, कुछ नहीं चाहिये होता। वास्तविक साधक स्वयं देवता ही होता है। वह भी अपना आप, गुणों सहित, पर हित के लिये देता है, प्रति रूप् में वह कुछ नहीं चाहता।