Chapter 4 Shloka 29

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा:।।२९।।

 

Now the Lord says:

Some offer their Praan breath into the Apaan breath,

others offer their Apaan breath into the Praan breath;

still others restrain the activity of the Praan and Apaan

and give themselves to the practice of Praanayam.

 

Chapter 4 Shloka 29

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा:।।२९।।

Now the Lord says:

Some offer their Praan breath into the Apaan breath, others offer their Apaan breath into the Praan breath; still others restrain the activity of the Praan and Apaan and give themselves to the practice of Praanayam.

Little one, first understand Praanayam. This is the method whereby the practicant with his thoughts fixed on the divine attributes, restrains the inhalation and exhalation – praan and apaan of breath – and thus regulates it.

Praan

1. Praan is one’s life force.

2. It imparts strength and vitality to life.

3. The organs of perception are praan.

4. The organs of action are praan.

5. All the senses gain their strength from Praan.

6. Praan is the protective force within the body.

7. Praan is the force which regulates the activity within the individual.

There are 5 types of Praanpraan, udaan, apaan, vayaan, and samaan.

Little one, a person dies without air. Air is life giving. This same air enters the body and enlivens many inner organs for the protection of the body. The five divisions of praan are made in accordance with the particular organ that the life breath activates.

Praan Vaayu – sustains the lungs and the heart. Through the heart it governs the rest of the body. The Praan activates the lungs so that they function properly. It controls the power of breath intake. It is the life force for the whole body.

Vyaan Praan – the power that distributes the life force of praan throughout the body.

Samaan Vaayu – activates and strengthens the digestive process. It helps in transmitting the energy of the digested food all over the body. The Samaan Vaayu is active in the stomach and helps digestion in the intestines also.

Apaan Vaayu – protects the activity of the kidneys, the organs of excretion, the liver etc. It aids in expelling pollution such as urine, stools, pus etc. from the body. It exits from the body as impure wind.

Udaan Vaayu– This life breath works in the upper part of the body – the head, neck and upper chest. It also looks after the eyes, ears, mouth, nose, throat and the tongue. Praan is the life force behind all these activities.

It is due to the Praan that blood courses through the blood vessels and controls the warmth of the body. It enables all the organs to work efficiently and thus maintains life.

The incoming Praan transmits clean and healthy air to all parts of the body. Apaan expels the impure air. If both function normally, the individual remains strong and his organs are ever renewed. His faculties are energised and his mind remains at peace.

Praanayam connotes:

a) Lengthening the life span.

b) Distributing the life breath throughout the body.

c) Regulating the life breath in the whole body.

d) Controlling the Praanas and bestowing strength to the body and mind of the individual.

There are many methods of Praanayam: some inhale and hold their breath, others exhale and control their breath – yet others try to control both inhalation and exhalation. These depend on personal choice and capacity. If one concentrates on the life breath, the sense organs and the mind are both diverted from their outgoing tendencies and approach silence. Thus the mind is automatically controlled – so believe the practicants of Praanayam.

A sincere practicant of Praanayam can achieve detachment from external objects. Then his life will be immersed in yagya and he will engage himself in selfless actions, for, the practice of all these yagyas lies in selfless actions and the renunciation of the fruit of those actions.

All the yagyas mentioned so far are the various means for self purification. Through their practice:

a) The sadhak becomes established in the intransience of the Atma.

b) He engages the body in selfless actions.

c) Realising the meaninglessness of the body, mind and sense organs, he offers all his faculties in service in the spirit of yagya, for the welfare of all.

अध्याय ४

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।

प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा:।।२९।।

अब भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. कोई अपान वायु में प्राण वायु को हवन करता है।

२. वैसे ही कोई प्राण वायु में अपान वायु को हवन करता है।

३. अन्य लोग, प्राण और अपान की गति को रोक कर,

४. प्राणायाम के परायण होते हैं।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! पहले प्राणायाम को समझ ले। यह दैवी गुणों का मानसिक स्मरण करते हुए, अपने सांस को रोक कर नियम में लाने की विधि है :

प्राणायाम =  प्राण+आयाम।

प्राण :

1. प्राण जीवन देने वाली शक्ति को कहते हैं।

2. जीवन में बल देने वाली शक्ति को प्राण कहते हैं।

3. ज्ञानेन्द्रियों को भी प्राण कहते हैं।

4. कर्मेन्द्रियों को भी प्राण कहते हैं।

5. इन्द्रिय बल को भी प्राण कहते हैं।

6. तनो संरक्षण की आन्तरिक शक्ति को भी प्राण कहते हैं।

7. आन्तर में नियमन करने वाली शक्ति को भी प्राण कहते हैं।

प्राण, उदान, अपान, व्यान और समान, ये पाँच प्राण कहे गये हैं।

नन्हीं! वायु के बिना जीव निष्प्राण हो जाता है। इस वायु में ही जीव की प्राण शक्ति निहित है। अब यही वायु, तन में जाकर तन की रक्षा के लिये विभिन्न आन्तरिक तनो अंगो को सप्राण करता है। यह जो वायु का सहज भिन्न अंगों में विभाजित होकर भिन्न अंगों को पुष्टित करना है, उसके अनुसार उसी वायु को विभिन्न नामों से पुकारते हैं।

प्राण वायु :

1. यह हृदय को पुष्टित करता है और हृदय संयोग से अन्य अंगों पर अधिकार रखता है। प्राण फेफड़ों को भी सचेत करता है तथा उन्हें अपने कार्य करने का बल देता है।

2. श्वास लेने की शक्ति प्राण वायु के अधीन होती है।

3. तन की निहित शक्ति प्राण वायु के अधीन होती है।

4. जीव के तन की सप्राणता इसी वायु के अधीन है।

व्यान प्राण :

यह वायु अखिल अंगों में प्राण वायु के प्रभाव को संचालित रखता है।

समान वायु :

1. समान प्राण जीवन की पाचन शक्तियों को पुष्टित रखता है। यह प्राण जीव के पचाये हुए अन्न को विभिन्न भागों में पहुँचाने में सहायक होता है।

2. इसका निवास स्थान उदर होता है।

3. यह आन्तड़ियों में भोजन के बहाव में भी समर्थन करता है।

अपान वायु :

1. यह गुदा, उपस्थ तथा जिगर इत्यादि का संरक्षण करता है।

2. मल मूत्र, पीक इत्यादि का भी ध्यान रखता है।

3. शरीर में से अशुद्ध वायु के रूप में बाहर निकलता है।

उदान वायु :

1. यह वायु सिर, गर्दन तथा तन के ऊपर के भाग में संचार करता है।

2. मस्तिष्क तथा नेत्रों का यह ध्यान रखता है।

3. कान, मुख तथा जिह्वा का भी यह ध्यान रखता है।

4. इन सबकी शक्ति के पीछे प्राण ही हैं।

नन्हीं! इन प्राणों के राही ही रक्त शिराओं में रक्त प्रवाहित होता है और जीव के आन्तर में ऊष्णता स्थिर रहती है। इन प्राणों के राही ही तनो अंग अपने काज दक्षता से करते हैं तथा जीव जीवित रहता है। इन के राही ही इन्द्रियाँ जीवित रहती हैं तथा जीव की शक्ति पुष्टित रहती है।

आन्तर आने वाला प्राण अपनी वायु को शुद्धता से सम्पूर्ण अंगों तक पहुँचाता रहे, अपान अपने ढंग से आन्तर में से अशुद्ध वायु को बाहर निकालता रहे तो :

1. जीव नित्य पुष्टित रहेगा।

2. जीव की इन्द्रियाँ पुष्टित रहेंगी।

3. जीव की शक्तियाँ बलयुक्त रहेंगी।

4. जीव का मन भी प्रशान्त रहेगा।

प्राणायाम का सन्धिच्छेद किया जाये तो ‘प्राण’ + ‘आयाम’ से प्राणायाम बनता है। ‘प्राण’ के विषय में कह चुके हैं, अब ‘आयाम’ को समझ ले। ‘आयाम’ का अर्थ है विस्तार करना, लम्बा करना, नियन्त्रण करना, फैलाव करना।

सो प्राणायाम का अर्थ हुआ :

1. जीवन को दीर्घ करना।

2. प्राण को पूर्ण तन में फैलाना।

3. प्राण का पूर्ण तन में नियन्त्रण करना।

4. प्राण को नियम बद्ध करना।

5. प्राण को नियम बद्ध करके जीव को पुष्टित करना।

6. प्राण को नियमबद्ध करके मानसिक शक्तियों को भी पुष्टित करना।

प्राणायाम करने की अनेक विधियाँ हैं। नन्हीं! कोई वायु बाहर निकाल कर और उसे वहीं रोक कर प्राणायाम करते हैं, कोई वायु आन्तर में ले जाकर और उसे वहीं रोक कर प्राणायाम करते हैं। कई लोग प्राण और अपान, दोनों को रोकने के यत्न करते हैं।

यह तो अपनी अपनी बात है। यदि जीव प्राण शक्ति पर भी ध्यान दे और उसे उचित ढंग से संसार की ओर ले जाये, तो इन्द्रियाँ बाह्य विषयों से हट जाती हैं; मन बाह्य विषयों के प्रति मौन हो जाता है, मन की विचार धारा भी मौन होने लगती है। तब स्वत: मन काबू में आ जाता है। प्राणायाम करने वाले ऐसा मानते हैं।

प्राणायाम करते करते भी जीव बाह्य विषयों से नि:संगता पा जाता है। नन्हीं! तब उसका जीवन यज्ञमय होने लगता है। तब वह भी निष्काम कर्मों में तत्पर हो जाता है। नन्हीं याद रहे! इन सब यज्ञों का रूप निष्काम कर्म है। इन सब यज्ञों का रूप फल त्याग है।

यह सब यज्ञ मानसिक अशुद्धियाँ मिटाने की विभिन्न विधियाँ हैं। इन सब यज्ञों के राही :

1. साधक आत्मा की नित्यता में स्थित होता है।

2. तन को जग में निष्काम यज्ञ रूप तथा फल की चाहना से रहित कर्मों में लगा देता है।

3. साधक अपने तन, मन तथा इन्द्रियों की निरर्थकता को समझने लगता है और यज्ञ करता हुआ सर्वभूत हितकर हो जाता है।

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