Chapter 14 Shloka 26

मां च योऽव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते।

स गुणान् समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।२६।।

The Lord elucidates on the method of becoming a gunatit –

One who ever serves Me with unswerving devotion,

that one transcends these three attributes

and becomes eligible for mergence with Brahm.

Chapter 14 Shloka 26

मां च योऽव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते।

स गुणान् समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।२६।।

Answering the third question of Arjuna, the Lord elucidates on the method of becoming a gunatit.

One who ever serves Me with unswerving devotion, that one transcends these three attributes and becomes eligible for mergence with Brahm.

Here the Lord elucidates the easy method of transcending the gunas. “He who follows Me with undiluted devotion becomes a gunatit.”

Avyabhichari (अव्यभिचारी)

a) He is a model of dharma in action.

b) He is a man of faith.

c) He is replete with virtue.

d) He is devoid of hostility.

e) He is sincere.

f) He is firm in his equanimity.

Bhakti (भक्ति)

1. Worshipful faith is bhakti.

2. The fervent and reverential yearning to imbibe the divine qualities is bhakti.

3. A fervent entreaty to embrace the Supreme is bhakti.

4. An unmitigated desire for the Supreme is bhakti.

5. Unswerving and undiluted love for the Supreme is bhakti.

6. Bhakti is another name for self surrender.

7. An intense desire and yearning for union with the Supreme is bhakti.

8. The immense energy force that takes one towards union with the Supreme is bhakti.

9. The easy yet supreme path of union with the Lord is bhakti.

10. That yearning cry of the devotee’s heart which persuades the Lord to manifest Himself is bhakti.

Sevate (सेवते)

Seva connotes:

a) To follow;

b) To utilise;

c) To take support of;

d) To pursue;

e) To protect.

The Lord is thus saying:

1. Those who meditate unflinchingly on the Supreme,

2. Those who constantly ‘use’ or practice the Lord’s qualities,

3. Those who continually take support of the Lord’s qualities,

4. Those who are ever dependent on the qualities of the Supreme,

5. Those who guard and protect those qualities with perseverance,

6. Those who steadfastly protect the Lord’s devotees,

– they speedily attain the state of a gunatit and become eligible for union with Brahm.

Look, if you truly accept Lord Krishna as the Supreme Godhead and have faith in Him, then you will acknowledge every word of the Gita to be the Lord’s own Word – the will of your own Lord – His injunction for you. Then will you ever be able to reject any word spoken by That Embodiment of the Gita and of all scriptural knowledge? Accept and follow all that you have understood so far and you will soon be able to understand the rest.

Thus you will steadily be able to:

a) become a gunatit;

b) become replete with divine qualities;

c) become a sthit pragya.

This is the sanctified fruit, the prasaad of undiluted devotion. Little one, understand this in yet another manner.

Your devotion will become one-pointed when you forget the world of objects and remember only the Atma. Then you will seek nothing more from this body, mind and intellect unit or from the world. You will yearn only for the Lord. Only He will be dear to you. When only one desire remains, all attributes will be disregarded. Their influence upon you will cease. You will be oblivious to how the world treats you. You would have then forgotten yourself.

Unflinching devotion makes the devotee a gunatit. It induces the individual to forget himself and establishes him in eternal silence.

अध्याय १४

मां च योऽव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते।

स गुणान् समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते।।२६।।

अब भगवान अर्जुन के तीसरे प्रश्न का उत्तर देते हुए, गुणातीत बनने की सहज विधि बताते हैं :

शब्दार्थ :

१. और जो पुरुष अव्यभिचारी भक्ति योग से,

२. निरन्तर मेरे को ही सेवता है,

३. वह इन तीनों गुणों को उलांघ कर,

४. ब्रह्म भाव के योग्य होता है।

तत्त्व विस्तार :

यहाँ भगवान गुणातीत बनने की सहज विधि कहते हैं। वह कहते हैं, ‘अव्यभिचारी भक्ति द्वारा जो मेरे को सेवता है वह गुणातीत हो जाता है।’

अव्यभिचारी :

अव्यभिचारी वह होता है, जो,

क) धर्मात्मा हो,

ख) श्रद्धालु हो,

ग) सद्गुण पूर्ण हो,

घ) अविरोधी हो,

ङ) वफ़ादार हो,

च) स्थिर हो।

भक्ति : 

1. श्रद्धापूर्वक उपासना को भक्ति कहते हैं।

2. श्रद्धापूर्ण भागवद् गुण आवाहन की पुकार भक्ति है।

3. परम को अंगीकार करने की आर्त पुकार भक्ति है।

4. परम की अखण्ड चाहना भक्ति है।

5. परम के प्रति अनन्य अनुरक्ति भक्ति है।

6. आत्म समर्पण का दूसरा नाम भक्ति है।

7. परम मिलन की उमंग और उत्कण्ठा भक्ति है।

8. परम मिलन की महा शक्ति भक्ति है।

9. परम योग की महान् तथा सरल राह भक्ति है।

10. जो पुकार भगवान को प्रकट कर दे, उसे भक्ति कहते हैं।

सेवते :

सेवा का अर्थ है :

क) अनुगमन करना,

ख) उपयोग करना,

ग) आसरा लेना,

घ) पीछा करना,

ङ) रखवाली करना।

ये सब कह कर, भगवान कह रहे हैं कि जो :

1. अहर्निश भगवान को ही याद करते हैं,

2. अहर्निश भगवान के ही गुण इस्तेमाल करते हैं,

3. अहर्निश भगवान के ही गुणों का आसरा लेते हैं,

4. अहर्निश भगवान के ही गुणों के परायण होते हैं।

5. अहर्निश भगवान के ही गुणों की रखवाली करते हैं,

6. यानि, अहर्निश भगवान के ही गुणों का संरक्षण करते हैं,

7. अहर्निश भगवान के ही भक्तों का संरक्षण करते हैं,

वे जल्द ही गुणातीत हो जाते हैं और ब्रह्म स्वरूप होने के योग्य हो जाते हैं।

देख! गर कृष्ण को तुम सच ही भगवान मानते हो और उनमें श्रद्धा भी है, तो हर वाक्, जो गीता में कहा है, वह भगवान कृष्ण का है; तुम्हारे भगवान का वाक् है, तुम्हारे अपने भगवान का आदेश है! फिर क्या तुम गीता रूपा वाङ्मय प्रतिमा की कोई बात ठुकरा सकोगे? जितनी तुम्हें समझ आई, उतनी ही बात मान लो तो काम बन जायेगा और बाक़ी बातें भी समझ आ जायेंगी।

इस विधि शनैः शनैः तुम,

1. गुणातीत हो ही जाओगे।

2. दैवी गुण सम्पन्न हो ही जाओगे।

3. स्थित प्रज्ञ हो ही जाओगे।

यह अनन्य भक्ति का प्रसाद है। नन्हूं! इस बात को एक बार फिर से समझ ले! अव्यभिचारी भक्ति तब होगी, जब हर विषय को भूल कर तुम केवल आत्मा को याद रखोगे। तब आपको तन, मन, बुद्धि, संसार आदि से कुछ नहीं चाहिये होगा। आपको केवल भगवान चाहिये होंगे; केवल भगवान प्रिय होंगे। यदि एक ही चाह रह जाये तो गुणों को कौन देखेगा, गुणों से कौन प्रभावित होगा? फिर कहाँ सुध होगी कि आपके साथ किसी ने क्या किया? फिर आप अपने आप को भूल चुके होंगे।

अनन्य भक्ति जीव को गुणातीत बना देती है। अनन्य भक्ति जीव की आत्म विस्मृति करा देती है। अनन्य भक्ति जीव को अखण्ड मौन में स्थित करवा ही देती है।

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