अध्याय १४
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसंगेन बध्नाति ज्ञान संगेन चानघ।।६।।
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. उन तीनों में से प्रकाश करने वाला और सुखद और निर्मल होने के कारण,
२. सतोगुण जीव को ज्ञान की आसक्ति से तथा सुख की आसक्ति से,
३. बांधता है।
तत्त्व विस्तार :
सतोगुण स्वरूप :
प्रथम सतोगुण का स्वरूप देख लो। वह :
1. निर्मल, निर्दोष है।
2. प्रकाश और ज्ञान देने वाला है।
3. सुख देने वाला है।
4. मनोव्यथा विमोचक है।
5. मनोव्यथा रहित है, यानि शान्तिप्रद है।
6. श्रेष्ठ कर्म करवाता है और श्रेष्ठता की ओर ले जाता है।
7. अज्ञान विनाशक है।
8. लोभ, तृष्णा से दूर करवाता है।
9. क्षमा, दया, करुणा को उत्पन्न करने वाला है।
10. देवत्व की ओर ले जाता है।
11. साधु तथा महात्मा बनाता है।
12. द्वन्द्व विमोचक है।
13. संकल्प, विकल्प गौण कर देता है।
14. राग, द्वेष गौण कर देता है।
15. निर्वैर भाव उत्पन्न कर देता है।
16. समचित्त बनाता है।
17. निष्काम कर्म में स्थित करवाता है।
18. निष्काम ज्ञान में स्थित करवाता है।
19. दैवी सम्पदा इस गुण के आसरे बढ़ती है।
20. उदासीनता इस गुण में निहित होती है।
इस गुण का परिणाम प्रकाश, ज्ञान और सुख है। जीवत्व भाव बधित लोग अपने में ऐसे गुण देख कर :
क) गुण अभिमानी हो जाते हैं।
ख) गुण संगी हो जाते हैं।
ग) गुणों से लिप्त हो जाते हैं।
इसलिये यह गुण जीव को प्रकाश और सुख से बांधता है।