Chapter 14 Shlokas 14, 15

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देह भृत्।

तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।।१४।।

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते।।१५।।

When the embodied mortal dies whilst his attribute of sattva is in the ascendant, he accesses the highest realms that are pure and luminescent with knowledge. The one who dies whilst the attribute of rajas is in the ascendant, is born amongst those who are attached to action. The one who dies in tamas is born amongst the ignorant and degraded.

Chapter 14 Shlokas 14, 15

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देह भृत्।

तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।।१४।।

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते।।१५।।

The Lord describes here, the fruits attained by one who was overtaken by death in the course of his spiritual advancement.

When the embodied mortal dies whilst his attribute of sattva is in the ascendant, he accesses the highest realms that are pure and luminescent with knowledge. The one who dies whilst the attribute of rajas is in the ascendant, is born amongst those who are attached to action. The one who dies in tamas is born amongst the ignorant and degraded.

Little one, the Lord is describing the cycle of birth and death. He says that one attains a new birth in accordance withone’s predominant tendency at the time of death.

Seeds sown during the ascendancy of the attribute of sattva

1. Since the attachment of such a one is with Truth;

2. Since his actions are imbued with Truth;

3. Since his basic yearning is for Truth;

4. Since such a one has disseminated his attribute of sattva amongst all,

therefore, the fruits of his tree of life and the seeds formed thereof will all be pervaded with sattva, with the attribute of Truth.

a) Such a seed finds an appropriate soil for rebirth in accordance with its predominant attribute.

b) Such a one attains circumstances and associates in accordance with the appropriate atmosphere required for the nurturing of the sattvic tendencies.

Little one, the Lord says that those who live in the ascendancy of the attribute of sattva and in the luminescence of knowledge, and those who perform great deeds:

a) attain noble families;

b) attain all the means necessary for the progression of their divine tendencies;

c) associate with virtuous and saintly people;

d) enjoy the companionship of those who possess knowledge of the Truth.

Thus one who attains a noble family automatically:

a) attains wealth;

b) attains knowledge;

c) receives the opportunity to perform virtuous deeds;

d) acquires the opportunity to perform selfless deeds;

e) attains the company of saints and sages.

Thus he attains every possible facility due to the predominance of sattvic attributes within him during his previous birth. However, in his present birth, he has to be careful about how he uses all these facilities, and remain vigilant regarding his attitude towards his wealth, knowledge, family and other people.

Seeds sown during the ascendancy of the attribute of rajas

Little one, listen carefully to what I tell you now. Those who are wealthy today have attained all that they possess as a consequence of their good and honourable deeds of several past lives. However, they must now take stock of their present day actions. They must measure themselves with the qualities elucidated in the Scriptures and then they can accurately estimate the fruits of these actions in their future lives. Thus they will be able to gauge that naught but sorrow lies ahead for them. The rajas that lies innate within them does not allow them to live in peace even in their present life; and all that they are doing to others in their present life will inevitably rebound on them in their future births. Then they will suffer the pangs of privation and lack of material prosperity. Then they will suffer the hardships of rejection. Then they will take birth amongst those who are attached to action and may well have to lead a life of servitude under selfish masters.

Seeds sown during the ascendancy of the attribute of tamas

1. Those in whom the attribute of tamas predominates, are themselves foolish and also lead others towards foolish and futile actions.

2. They evade duty themselves and influence others to do the same.

3. They take recourse to false and illusory justifications and teach the same principles to others.

Little one, you must remember that all attributes:

a) reflect the truth;

b) indicate a state of mind;

c) mirror one’s innate point of view;

d) are indicators of the strength or weakness of the intellect which is subservient to the body self.

Most people claim, “My intention was correct.” However, intentions are not enough.

1. Man must measure himself.

2. He must judge his own deeds.

3. He must assess his own desires.

4. He must evaluate his humaneness.

When you like a particular story, you will realise that what you liked was the interaction of its main characters and their principles. You must have appreciated their sacrifices, love and sincerity. Can you not inculcate in yourself those very qualities that you appreciate in their nature? How can you like yourself if you do not practice all that you appreciate – that which you call noble? You must exemplify that behaviour in your own life, which you appreciate in another.

Little one, if you embody what you consciously appreciate and revere, you will automatically proceed towards the attribute of sattva.

Life and birth are dependent on the cycle of action. All actions performed by the body self belong to you as long as your identification with the body remains. When this identification disappears, the body will still perform actions, but those actions will no longer be yours.

अध्याय १४

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं याति देह भृत्।

तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।।१४।।

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते।

तथा प्रलीनस्तमसि मूढ़योनिषु जायते।।१५।।

यहाँ भगवान सत्त्व गुण की वृद्धि में मृत्यु पाने वाले के फल के विषय में कहते हैं।

शब्दार्थ :

१. फिर जब देह धारी,

२. सत्त्व गुण की वृद्धि में मृत्यु को प्राप्त होता है,

३. तब उत्तम, ज्ञान पूर्ण और निर्मल लोकों को प्राप्त होता है।

४. रजोगुण में मृत्यु को प्राप्त होकर,

५. (वह) कर्म संगियों में उत्पन्न होता है।

६. तमोगुण में लीन हुआ,

७. वह मूढ़ योनियों में उत्पन्न होता है।

तत्त्व विस्तार :

नन्हीं! भगवान जन्म मरण के चक्र की बात कहते हैं यहाँ। कहते हैं, ‘जैसे जिसका मरण भाव होता है, वैसी ही उसको नव योनि मिलती है।’

सतोगुण में बीज आरोपण :

क) सत् वाले का संग सत् से होने के कारण,

ख) सत् वाले के कर्म सत् पूर्ण होने के कारण,

ग) सत् वाले की सत् मांग होने के कारण,

घ) सत् वाले ने जीवन में सबको सत् ही दिया होता है, इस कारण उसके जीवन रूप वृक्ष के फल एवं बीज, सत्पूर्ण ही होते हैं।

1. वे बीज, अपने गुणों के अनुसार गुणपूर्ण धरती ढूँढ लेते हैं और उनका वहीं पुनर्जन्म होता है।

2. सतोगुण को पलने के लिए जैसी परिस्थितियाँ चाहियें और जैसे लोग चाहियें, वही उन्हें मिलते हैं।

नन्हूं! भगवान कहते हैं कि सतोगुण की प्रधानता में जीने वाले लोग, जो ज्ञान के प्रकाश में रहते हैं और श्रेष्ठ कर्म करने वाले होते हैं, उन्हें आगामी जन्म में :

क) उत्तम कुल मिलते हैं।

ख) देवत्व के आगे बढ़ने के सम्पूर्ण साधन मिलते हैं।

ग) साधुता पूर्ण लोग मिलते हैं।

घ) उन्हें ज्ञान पूर्ण लोग भी मिलते हैं।

इसे यूँ समझ!

एक जीव को श्रेष्ठ कुल में,

1. धन भी मिलता है।

2. ज्ञान भी मिलता है।

3. शुभ कर्म करने का मौका भी मिलता है।

4. निष्काम कर्म करने का मौका भी मिलता है।

5. साधुओं की संगत भी मिलती है।

मिलता तो सब कुछ है और जो मिला है, वह पूर्व जन्म में सत् गुण की प्रधानता के कारण मिला है, किन्तु जीव आधुनिक जन्म में उसे कैसे इस्तेमाल करता है और उसका धन, ज्ञान, कुल, जीव इत्यादि के प्रति क्या दृष्टिकोण है, यह वह स्वयं देख ले।

रजोगुण में बीज आरोपण :

नन्हीं! एक बात बताऊँ? ज़रा सुनो! आज के धनवान बहुत जन्म शुभ कर्म तथा सत्पूर्ण कर्मों के फल स्वरूप ये सब कुछ पाये हैं, किन्तु उन्हें चाहिये कि स्वयं अपने इस जीवन के कर्मों का हिसाब तो कर लें। शास्त्र कथित गुण सम्मुख रख कर अपने आप को तोल तो लें और उससे निर्णय कर लें कि उन्हें आगे क्या मिलना है? तब शायद उन्हें पता लग जाए कि आगे उनके लिये सिवा दु:ख के और कुछ नहीं है। उनका रजोगुण उन्हें इस जीवन में भी सुख चैन नहीं लेने देता, फिर आगामी जन्म में तो जो उन्होंने दूसरों से किया है, वही उनके सामने आयेगा। वह तो उनको मिलेगा ही! तब वे निर्धन होंगे और तड़पेंगे। तब वे ठुकराये जायेंगे। तब वे कर्म संगियों में उत्पन्न होंगे। तब वे काम्य कर्म करने वालों के चाकर बनेंगे ही!

तमोगुण में बीज आरोपण :

क) तमोगुण की प्रधानता वाले लोग स्वयं तो मूर्ख होते ही हैं, वे औरों को भी मूर्खता की ओर ले जाते हैं।

ख) वे स्वयं तो कर्तव्य विमुख होते ही हैं, वे औरों को भी कर्तव्य विमुख कर देते हैं।

ग) वे तो मिथ्या सिद्धान्तों का आसरा लेते ही हैं, वे औरों को भी वही सिद्धान्त सिखाते हैं।

उन मूढ़ लोगों को और भी मूढ़ योनियाँ मिलती हैं।

नन्हूं! याद रहे, सम्पूर्ण गुण :

1. सत्मय होते हैं।

2. मन की अवस्था के सूचक हैं।

3. आपके दृष्टिकोण के सूचक हैं।

4. आपकी देहात्म बुद्धि की तीव्रता या गौणता के सूचक हैं।

इनके द्वारा आप अपने आप को तोल लो!

अधिकांश लोग कह देते हैं कि, ‘हमारी नीयत ठीक है’ इत्यादि! यह कहना ही काफ़ी नहीं होता, जीव को,

क) अपने आप को तोल लेना चाहिये।

ख) अपने कर्मो को तोल लेना चाहिये।

ग) अपनी कामनाओं को भी तोल लेना चाहिये।

घ) अपनी इन्सानियत को भी तोल लेना चाहिये।

आपको जो कहानी अच्छी लगती है, उसके मुख्य नटों का व्यवहार भी आपको पसन्द ही होगा। उनके सिद्धान्त भी पसन्द ही होंगे। उनकी कुर्बानियां भी पसन्द होंगी, उनका प्रेम भी पसन्द ही होगा, उनकी वफ़ा भी पसन्द ही होगी।

जो गुण आपको औरों में पसन्द आये हैं, वे गुण क्या आप, अपने में नहीं लाना चाहते?

जो लोग आपको पसन्द हैं, जिन लोगों को आप श्रेष्ठ कहते हैं, जिन बातों को आप श्रेष्ठ कहते हैं, जो व्यवहार आप औरों से चाहते हैं, वह यदि आप स्वयं नहीं करते तो आप अपने आप को कैसे पसन्द कर सकते हैं?

नन्हूं! यदि आप अपनी चेत पसन्द स्वयं बन जायें तो आप सत्गुण की ओर बढ़ ही जायेंगे।

जन्म तो कर्म के चक्र पर आधारित है। जब तक तनत्व भाव का अभाव नहीं हो जाता, तब तक आपके तन के द्वारा हुए सम्पूर्ण कर्म आपके हैं। तनत्व भाव के अभाव के पश्चात् केवल ‘कर्म’ रह जायेंगे, किन्तु वे आपके नहीं होंगे।

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