अध्याय १४
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम सार्धम्यमागता:।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।२।।
जो ज्ञान भगवान अब देने लगे हैं, उससे जीव भगवान जैसा ही हो जायेगा, यह कहते हुए भगवान कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. इस ज्ञान का आश्रय लेकर,
२. मेरी समानता पाये हुए मुनि जन,
३. सृष्टिकाल के आदि में उत्पन्न नहीं होते
४. और न ही प्रलय काल में व्यथा को पाते हैं।
तत्त्व विस्तार :
भगवान के दिये हुए ज्ञान द्वारा परम की प्राप्ति :
सुन! सुन! भगवान क्या कहते हैं! जो ज्ञान वह देने लगे हैं, उसकी महिमा गा रहे हैं। वह कह रहे हैं, इसके आसरे मुनिजन,
क) मेरे समान हो गये।
ख) मुझ जैसे जीवन धर्मा हो गये।
ग) मुझ जैसे उदासीन हो गये।
घ) मुझ जैसे निर्लिप्त हो गये।
ङ) मुझ जैसे नित्य तृप्त हो गये।
च) मुझ जैसे निर्विकार हो गये।
यानि, जीवन में मेरे जैसे ही हो गये, पुरुष से पुरुषोत्तम हो गये, पुरुषोत्तम से परम पुरुष हो गये। जीवन में वे मेरे समान धर्म का अनुष्ठान करते हैं। यानि,
1. प्रेम स्वरूप, प्रेम रूप हो जाते हैं।
2. दैवी सम्पदा सम्पन्न हो जाते हैं।
3. स्थित प्रज्ञ वे सत् रूप हो जाते हैं।
4. सत् असत् से परे, भगवान समान हो जाते हैं।
5. अति साधारण, किन्तु विलक्षण हो जाते हैं।
6. भाई! वे तो स्वयं अध्यात्म रूप हो जाते हैं।
7. वे तो स्वयं अध्यात्म प्रकाश स्वरूप हो जाते हैं।
8. फिर, वे तनत्व भाव को त्यागकर जन्म मृत्यु से तर जाते हैं।
9. वे आत्मा में खो जाते हैं और मृत्यु से व्यथित नहीं होते।