अध्याय ७
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:।।१९।।
अब भगवान ऐसे ज्ञानी भक्त की दुर्लभता की कहते हैं कि,
शब्दार्थ :
१. बहुत जन्मों के अन्त में जो ज्ञानवान्,
२. ‘सब कुछ वासुदेव ही है,’ इस प्रकार मेरे को भजता है,
३. वह महात्मा अति दुर्लभ है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं जान्! बहुत जन्मों में योग का अभ्यास करते करते जीव, जीवन में भगवान की पूर्णता का अनुभव करते हैं।
वे साधक भगवान का जीवन में ‘प्रपद्यन’ करते हैं।
‘प्रपद्यते’ का अर्थ जान लो मेरी जान, फिर ‘भजन’ समझ आ जायेगा।
‘प्रपद्य’ का अर्थ है, उपभोग करना, उपयोग करना, अनुरक्त होना, प्रस्तुत करना, हिस्सा लेना, ग्रहण करना, स्वीकार करना, प्राप्त करना, अनुभव करना, आश्रय लेना, अंगीकार करना, व्यवहार करना, जीवन उस पर समर्पित करना, जीवन में उसका अभ्यास करना, जीवन को ज्ञान के समान बनाना, परम के सम होना।
यही समत्व योग है, यही समत्व योग का साधन है, यही सम्पूर्ण साधना है, यही सम्पूर्ण साधना का विषय है, राम ही उस साधना का परिणाम है।
ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है, जो,
1. सबमें भगवान का स्वरूप देखता है।
2. सबमें आत्म तत्व को ही देखता है।
3. सबको आत्म रूप ही देखता है।
4. सबमें आत्म तत्व देखकर सबसे प्रेम करता है।