Chapter 7 Shloka 9

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।९।।

I am the sweet fragrance of the earth;

I am the brilliance of the fire;

I am the life that permeates all living beings;

I am the austerity of the tapasvi.

Chapter 7 Shloka 9

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।९।।

Little one, in order to aid your practice, the Lord now repeats:

I am the sweet fragrance of the earth; I am the brilliance of the fire; I am the life that permeates all living beings; I am the austerity of the tapasvi.

The Lord says, “I am the life that inheres all living beings. I am their life breath or praan.”

1. If life itself is the Lord’s, is there any place for the ‘I’?

2. All interact within the orbit of those attributes that are created by Him. Then which deeds can be attributed to the ‘I’?

3. The individual is rendered conscious when he receives that consciousness from Brahm. Then how can one take pride in the possession of that consciousness?

4. And which are the deeds that the ‘I’ can truly claim as its own?

The ‘I’ is ever the non-doer.

Understand this once more:

a) This body is His.

b) The mind is His.

c) The intellect is His.

d) All actions transpire through the qualities which are of His making.

e) This life too, is His.

Then where is there any place for the ‘I’?

The Lord says:

1. I am the pure fragrance in the earth.

2. I am the life breath of the universe.

3. I am the creative energy of the earth.

4. I am the austerity practised by the tapasvi.

5. I am the energy that enables those tapasvis to withstand the most fearful sorrows.

6. I am the brilliant energy of the tapasvi.

The Lord explains further that:

a) He Himself is the brilliance of the fire.

b) He is the warmth therein.

c) He is the energy that causes fire to burn and destroy.

d) He is the energy of digestion.

e) He is the heat that enables fire to cook.

Little one, if the Lord is all these, of what consequence is this ‘I’? What status does it have?

When the Lord Himself says, “I am this fragrance, energy, life and tapas itself,” then this ‘I’ which I have been claiming till now is also the Lord.

अध्याय ७

पुण्यो गन्ध: पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।

जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।९।।

नन्हीं! तेरे अभ्यास के लिये भगवान पुन: कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. पृथ्वी में पुण्य गन्ध मैं ही हूँ,

२. अग्न में तेज मैं ही हूँ;

३. सम्पूर्ण जीवों में जीवन मैं हूँ;

४. तपस्वियों में तप मैं ही हूँ।

तत्व विस्तार :

भगवान कहने लगे, ‘सम्पूर्ण जीवों का जीवन मैं हूँ। सम्पूर्ण जीवों के प्राण मैं हूँ।’

1. जीवन ही गर भगवान का है तो ‘मैं’ की जगह कहाँ रही?

2. उनके द्वारा रचित गुणों में ही सब वर्त रहे हैं तो ‘मैं’ के कर्म भी कोई नहीं रहे।

3. ब्रह्म की चेतन शक्ति से जीव चेतन होता है तो ‘मैं’ किस चेतना का गुमान करे?

4. तब ‘मैं’ कौन से कर्म अपनाये?

मैं तो नित्य अकर्ता हो जाता है।

पुन: समझ!

क) तन उसी का है,

ख) मन उसी का है,

ग) बुद्धि उसी की है,

घ) कर्म, गुणन् राह स्वत: हो रहे हैं,

ङ) और जीवन भी उसी का है।

तो ‘मैं’ की जगह कहाँ पर रह जाती है?

भगवान कहते हैं :

क) पृथ्वी में जो पवित्र गन्ध है, वह भी मैं हूँ।

ख) पृथ्वी में जो प्राण हैं, वह भी मैं हूँ।

ग) पृथ्वी में जो उत्पन्नकर शक्ति है, वह मैं हूँ।

घ) तपस्वियों में तप भी मैं हूँ।

ङ) तपस्वियों में दारुण दु:ख सहने की शक्ति भी मैं ही हूँ।

च) तपस्वियों में तेज भी मैं ही हूँ।

भगवान आगे समझा रहे हैं :

1. अग्नि में तेज भी भगवान ही हैं।

2. अग्नि में ऊष्णता भी भगवान ही हैं।

3. अग्नि में जलाने की शक्ति भी भगवान ही हैं।

4. अग्नि में पचाने की शक्ति भी भगवान ही हैं।

5. अग्नि में पकाने की शक्ति भी भगवान ही हैं।

नन्हीं! गर यह सब कुछ स्वयं भगवान हैं, तो ‘मैं’ का क्या अस्तित्व रह जायेगा? तब ‘मैं’ की कौन सी जगह रह जायेगी?

जब भगवान कहते हैं कि ‘गन्ध, तेज, जीवन और तप मैं ही हूँ,’ तब तो मैं जिसे ‘मैं’ कहता आया हूँ, वह भी भगवान ही है।

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