Chapter 7 Shloka 16

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।१६।।

O Arjuna! Four types of devotees,

performing noble deeds, worship Me:

the Arth Arthi, the Aarat,

the Jigyasu and the Gyani.

Chapter 7 Shloka 16

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।१६।।

The Lord now defines the four types of devotees who worship Him:

O Arjuna! Four types of devotees, performing noble deeds, worship Me: the Arth Arthi, the Aarat, the Jigyasu and the Gyani.

Arth Arthi (अर्थ अर्थी)

1. Those desirous of fulfilment of gross desires;

2. Those who crave sense objects;

3. Those who seek self establishment;

4. Those who take the Lord’s Name in order to fulfil some personal task.

Those who perform deeds with a selfish motive are classified as Arth Arthi. Such people perform even meritorious deeds:

a) with a selfish motive;

b) to make a name for themselves;

c) to fulfil some craving of their own.

They worship the Lord with desire fulfilment as their principal objective. They glorify the Lord’s Name for mental peace.

Aarat (आर्त)

1. The sorrowful are known as Aarat.

2. Those suffering the tyranny of others are known as Aarat.

3. Those burdened by distress are classified as Aarat.

4. Those enmeshed in great adversity are Aarat.

5. Those who are overtaken by sorrow and pain are known as Aarat.

These people worship the Lord and perform good deeds in order to save themselves from adversity and sorrow.

Jigyasu (जिज्ञासु)

1. They worship the Lord with the sole objective of knowing the Truth.

2. They study the Scriptures assiduously in order to become great scholars.

3. They ask several questions in their search for the Truth.

After intensive research they are successful in eliciting new and subtle truths. However, all their endeavours are only to impress the world.

The Gyani Bhakta (ज्ञानी भक्त)

1. Such a bhakta or devotee employs his knowledge in his daily life.

2. He wishes to make his life an embodiment of that knowledge.

3. He wishes to translate the Essence of Truth into life.

4. He seeks knowledge only to ensure he does not become a slur on the Lord’s Divine Name.

5. He seeks knowledge only to enable him to obey the Lord’s commandments.

6. He only seeks to offer himself to His Lord.

7. He seeks nothing from the Lord on account of the body.

8. He endeavours only to eradicate the ‘I’ – a defilement.

9. He performs selfless deeds and worships the Lord selflessly.

10. His knowledge, too, is selfless.

Little one, though these four types of devotees all perform elevated and meritorious deeds, their basic objectives are very different.

These days, most worshippers belong to the class of Arth Arthis. Even those who possess great knowledge, can at the most be classified as Jigyasus. Even some of the venerated sadhus of the present times are engrossed in self establishment, with the gunas of rajas and tamas predominating. The Gyani Bhakta is extremely difficult to find. Such a one seeks merely to surrender himself at the feet of his Divine Lord.

अध्याय ७

चतुर्विधा भजन्ते मां जना: सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्त्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।१६।।

भगवान अपने चार प्रकार के भक्तों के विषयों में कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. हे अर्जुन! उत्तम कर्म करने वाले,

२. अर्थ अर्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी,

३. ये चार प्रकार के जन मेरे को भजते हैं।

तत्व विस्तार :

अर्थ अर्थी :

अर्थ अर्थी, यानि :

1. स्थूल कामना पूर्ति चाहने वाले लोग;

2. किसी विषय की अभिलाषा वाले लोग;

3. अपनी स्थापना को चाहने वाले लोग;

4. अपना कार्य अर्थ सिद्ध करने के लिये जो भगवान का नाम लेते हैं।

सकाम कर्म करने वाले लोग अर्थ अर्थी होते हैं। ये लोग शुभ कर्म भी :

क) सकाम भाव से करते हैं,

ख) अपना नाम बनाने के लिये करते हैं,

ग) कोई लोभ पूर्ण करने के लिये करते हैं,

ये लोग अपनी कामना पूर्ति के लिये भगवान को भजते हैं, मनो चैन के लिये भगवान को भजते हैं।

आर्त :

1. दु:खी को आर्त कहते हैं।

2. अत्याचार से पीड़ित को आर्त कहते हैं।

3. जो महा कष्ट में हों, उन्हें आर्त कहते हैं।

4. जो महा संकट में फंसे हों, उन्हें आर्त कहते हैं।

5. जो दु:ख और दर्द से भरे होते हैं, उन्हें आर्त कहते हैं।

ये लोग अपने दु:ख से बचने के लिये शुभ कर्म करते हुए भगवान को भजते हैं।

जिज्ञासु :

क) जिज्ञासु गण भी भगवान का भजन करते हैं किन्तु वे केवल सत् को जानना चाहते हैं।

ख) ये बहुत पाठ पठन करते हैं और शास्त्रज्ञ बनना चाहते हैं।

ग) जिज्ञासु गण सत् की खोज अर्थ बहुत प्रश्न पूछते हैं।

अति प्रयास करके ये नवीन और निहित तत्व खोज निकालते हैं; किन्तु यह सब जग को दिखाने के लिये करते हैं; यह सब केवल जग में प्रस्तुत करने के लिये करते हैं; यह सब जग को सुनाने के लिये करते हैं।

ज्ञानी भक्त :

ज्ञानी भक्त भी भगवान का भजन करते हैं।

क) ऐसे भक्त अपने ज्ञान का अपने जीवन में प्रयोग करते हैं।

ख) अपने जीवन को ज्ञान की प्रतिमा बनाना चाहते हैं।

ग) सत्त्व तत्व का अपने जीवन में अनुष्ठान करना चाहते हैं।

घ) ज्ञानी भक्त को ज्ञान केवल इसलिये चाहिये कि वह स्वयं भगवान पर कलंक न बने।

ङ) ज्ञानी भक्त को ज्ञान केवल इसलिये चाहिये कि वह उसे भगवान का आदेश मानकर उसका अनुसरण कर सके।

च) ज्ञानी भक्त केवल अपना आप भगवान को अर्पित करना चाहते हैं।

छ) ज्ञानी भक्त भगवान से भी अपने तन के नाते कुछ नहीं माँगते।

ज) वह तो अपनी ‘मैं’ रूपा मल का अभाव चाहते हैं।

झ) ज्ञानी भक्त निष्काम कर्म करने वाले होते हैं।

ञ) ज्ञानी भक्त निष्काम भजन करने वाले होते हैं।

ट) ज्ञानी भक्त निष्काम ज्ञान पूर्ण होते हैं।

नन्हीं! भगवान कहते हैं कि, ‘यह चारों प्रकार के भक्त उत्तम कर्म करने वाले होते हैं।’ वे सब पुण्य कर्म तो करते हैं परन्तु उनकी निहित माँग र्फ़क है।

आजकल पूजा करने वाले अधिकांश लोग तो अर्थार्थी हैं; जो महाज्ञानी भी हैं वे केवल जिज्ञासु ही हैं।

साधु सन्त भी गुण बन्धे, गुण आश्रित, अपनी अपनी स्थापना में लगे हुए रजोगुण या तमोगुण प्रधान होते जा रहे हैं। ज्ञानी भक्त, जो मिलना ही कठिन है, वह तो केवल अपना आप भगवान को अर्पित करना चाहता है।

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