अध्याय ७
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा।।६।।
मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।७।।
हे अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. तू ऐसे समझ कि सम्पूर्ण भूत पदार्थ इन्हीं दोनों प्रकृतियों वाले हैं
२. और मैं ही सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति और लय हूँ।
३. मेरे सिवाय किंचित् मात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है।
४. यह सम्पूर्ण मुझ में ही पिरोया हुआ है, ज्यों मणियां धागे की लड़ी में पिरोई होती हैं।
तत्व विस्तार :
नन्हीं आत्मा! इसे यूँ समझ, भगवान कहते हैं, ‘सम्पूर्ण जहान मेरी जड़ तथा चेतन प्रकृति जनित ही है तथा इसी पर आधारित है। यह इसी प्रकृति के गुणों से है, तथा इसी में स्थित है। अन्त में यह पूर्ण जग मेरी जड़ चेतन प्रकृति में ही लय होता है। इस कारण सम्पूर्ण जहान की उत्पत्ति तथा प्रलय का कारण मैं हूँ।’
भगवान कहते हैं कि वास्तव में यह सच है कि इन दोनों प्रकृतियों के पति ब्रह्म हैं, आत्म तत्व है।
भगवान ने फिर कहा कि मुझ से परे कोई नहीं है और मेरे सिवा किंचित् मात्र भी दूसरी चीज़ कोई नहीं है। ज्यों धागे में मोतियों की लड़ी होती है, इसी विधि यह प्रकृति की रचना मुझ में ओत प्रोत है। इसी विधि ब्रह्म की सत्ता में सम्पूर्ण संसार टिका हुआ है। अब इसे समझ ले नन्हीं, कि यदि समस्त संसार ब्रह्म का रूप है तो मैं इस तन को कैसे अपना सकती हूँ? फिर ‘मैं’ केवल भ्रम मात्र रह जाती है, ‘मैं’ केवल व्यक्तिगत है। वह पूर्ण की पूर्णता में से एक तन को चुरा लेती है।
भगवान ने तन रचा है, ‘मैं’ उसमें आकर बस गई है। अब तुझे चाहिये कि कुछ पल के लिये जिसका तन है, उसे देकर देख। तनत्व भाव अभाव तब ही हो सकता है यदि आप तन को अपना न मानें और अपनी ‘मैं’ को आत्मा में विलीन कर दें। वास्तव में आपका स्वरूप भी वही है।
जो ब्रह्म की जड़ रचना है, उससे तद्रूपता ही अज्ञान है, उससे संग का अभाव ही विज्ञान है।
आत्म और अनात्म का विवेक ही ज्ञान है।