Chapter 8 Shloka 28

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।२८।।

The Yogi, realising this profound truth,

transcends all the rewards of yagya,

tapas and daan and of the study of the Vedas,

and attains that Ancient, Supreme State.

Chapter 8 Shloka 28

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।२८।।

Bhagwan now says:

The Yogi, realising this profound truth, transcends all the rewards of yagya, tapas and daan and of the study of the Vedas, and attains that Ancient, Supreme State.

Little one, the Lord is answering the question asked by Arjuna, as to how He (the Lord) could be known by a Yogi in his last moments, even whilst still abiding in the body.

The Lord has explained the secret of the paths of Uttarayan and Dakshinayan in answer to that same question.

Little one, you must remember the Lord has clarified, “An individual progressing on the northward path proceeds towards the Shukla Paksha.”

1. When a person progresses towards excellence, he proceeds towards light.

2. The practice of divine qualities augments his intellect and leads to enlightenment.

3. Thus progressing on the Uttarayan path, he becomes established in selflessness.

4. A lifetime of practice of divine qualities results in those qualities becoming ingrained in him in the course of time – embellishing his inner being.

5. Little one, such a one constantly gives of himself to the other selflessly and for the other’s welfare.

6. Thus habitually giving his body in the service of others and fulfilling their desires, such a one attains satiation himself. He gains strength in detachment towards his own body. Not even a flicker of expectation from the other rises within him and his life becomes an unbroken string of deeds performed in the spirit of yagya. Thus performing deeds for others’ benefit, he learns to identify himself with others and to forget himself. Immersed thus in others’ welfare, he is oblivious to self-establishment.

The external form and the essential core of the Atmavaan

Little one, of what use are the beneficent fruits of yagya, tapas and daan and of scriptural study for one who has forgotten his body self?

These fruits are sought by the individual for:

a) satiation of the body self;

b) the establishment of the body self.

One who has severed all ties with the body, who has forgotten the body self, automatically transcends the fruits of action. He transcends the body idea even whilst he lives. He ceases even to consider or fear what will become of him when he thus renounces the body.

Little one, all qualities are nurtured through their usage. Gross attributes as well as divine qualities are augmented through usage. Mere admiration or thinking of those qualities will not help you imbibe them. If you disseminate those qualities in the world through your body, mind and intellect, only then can those qualities be multiplied and strengthened. Study can increase one’s understanding, but it will not help in nurturing the qualities.

In the present day, people begin to become boastful with the accumulation of knowledge. In fact, the very sign of the man of wisdom is humility. This humility is not merely for show – it must be evident in practice. Even if his head does not appear bowed before others, the Atmavaan’s deeds are all offered in the other’s service and at the other’s feet. The Atmavaan, established in the Atma, knows each being who comes before him to be essentially the same Atma Self. Thus he experiences the unity in all.

However, acknowledging the differentiation of gunas and the existence of ignorance, such a one identifies with others in action and acquaints them with the same knowledge through silent instruction. All are the Atma for such a one. He knows that differentiation in qualities originate in Prakriti and these qualities are not in our control. That Knower of the essential Self is also aware that he is not responsible even for his own qualities; these too are a gift of Prakriti.

Little one, he who knows all this, is established in the Atma and is not attached to the fruits of good or bad actions that spring forth from the qualities actuated by Prakriti. Thus transcending the beneficial fruits of yagya, tapas and daan and the study of the Scriptures, such a one abides in complete unity – Atma merged in the Atma.

अध्याय ८

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्।।२८।।

अब भगवान आगे कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. योगी पुरुष इस रहस्य को तत्व से जान कर,

२. वेद, यज्ञ, तप और दान में जो पुण्य फल कहे हैं,

३. उन सबको उलांघ जाता है

४. और सनातन परम पद को पाता है।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! यहाँ भगवान अर्जुन के पूछे हुए प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं कि, इस शरीर में रहते हुए, युक्त चित्त वाले पुरुषों के द्वारा, अन्त समय में वह किस प्रकार जानने में आते हैं?

इस प्रश्न के उत्तर में ही भगवान दक्षिणायन तथा उत्तरायण का राज़ समझा कर आये हैं।

याद रहे नन्हीं! उन्होंने कहा, ‘उत्तरायण की ओर बढ़ता हुआ जीव, शुक्ल पक्ष की ओर बढ़ता जाता है।’ यानि :

1.  जब जीव का जीवन श्रेष्ठता की ओर बढ़ता जाता है, तब प्रकाश होने लगता है।

2.  जब जीव जीवन में परम के गुणों को इस्तेमाल करता है, तब बुद्धि बढ़ती जाती है, प्रकाश बढ़ता जाता है।

3.  जब जीव जीवन भर उत्तरायण की ओर बढ़ता रहे, तब वह निष्काम भाव में भी स्थित हो जाता है।

4.  जब जीव उम्र भर दैवी सम्पदा को अपने जीवन में बहाता रहे तो दैवी गुण मानो उसके निजी श्रृंगार रूप आभूषण बन जाते हैं।

5.  नन्हीं! ऐसा जीव अपने तन को निष्काम भाव से दूसरों के काज अर्थ नित्य देता रहा होगा।

6. अपना तन लोगों को देते देते, उनकी कामनाओं को तृप्त करते करते, वह स्वयं नित्य तृप्त हो गया, उसकी अपने तन के प्रति उदासीनता में परिपक्वता आ गई होगी। उसके मन में आशा का लेश मात्र भी नहीं होगा, उसका जीवन एक अखण्ड यज्ञ बन चुका होगा। लोगों के कर्म करते करते वह औरों से तद्‍रूप होना तथा अपने आपको भूल जाना सीख गया होगा। लोगों के कार्य करते करते वह अपने आपको स्थापित करना भी भूल गया होगा।

ज्ञानवान् आत्मवान् का रूप और स्वरूप :

नन्हीं! जो अपने तनोरूप को भूल गया हो, वह यज्ञ, तप, दान तथा शास्त्र पठन के पुण्य फल को पाकर भी क्या करेगा?

पुण्य का फल भी तो जीव को,

क) अपने तन के नाते चाहिये होता है।

ख) अपने तन को स्थापित करने के लिये चाहिये होता है।

जिसने तन से नाता ही तोड़ दिया, जो तन को भूल ही गया हो, वह स्वत: ही तनत्व भाव को उलांघ जाता है। वह तो जीते जी ही तनत्व भाव को उलांघ जाता है।

तन त्यागने के समय क्या होगा; इसकी परवाह वह कब करता है?

नन्हीं! हर गुण इस्तेमाल करने से बढ़ता है। स्थूल गुण भी इस्तेमाल करने से बढ़ते हैं, दैवी गुण भी इस्तेमाल करने से बढ़ते हैं। गुणों का केवल चिन्तन करते रहो तो वह गुण आप में नहीं आ जाते। यदि आप अपने तन, मन तथा बुद्धि के राही भागवद् गुण जहान में बहाओ, तब ही वह वृद्धि पाते हैं तथा पुष्टित हो जाते हैं। केवल पठन पाठन से समझ तो बढ़ जाती हैं; किन्तु गुण पुष्टि नहीं पाते।

आजकल ज्ञान आ जाने पर लोग गुमान करने लगते हैं। वास्तव में ज्ञानवान् का चिह्न ही झुकाव है। केवल दर्शन में ही झुकाव नहीं होता, बल्कि वर्तन में झुकाव होना अनिवार्य है। आत्मवान् का सिर चाहे कभी न झुके किन्तु उसके सम्पूर्ण कर्म लोगों के चरणों में अर्पित हुए होते हैं। आत्मवान् आत्मा में स्थित होने के कारण, जो सम्मुख आये, उसे भी आत्मा ही जानता है, इस कारण सबसे सजातीयता महसूस करता है।

किन्तु गुण भेद का राज़ समझाते हुए और अज्ञान आवरण का राज़ समझाते हुए, कर्मों में दूसरों के तद्‍रूप होकर कर्म करता हुआ उन्हें मानो मौन में वह राज़ समझाता है। उसके लिये आत्मा के नाते सब आत्म स्वरूप ही है। गुण भेद प्रकृति जन्य हैं, किसी के वश में नहीं, यह वह जानता है। बल्कि आत्मवान्, स्वरूप तत्व ज्ञाता यह भी जानता है कि उसके अपने तन के गुण भी उसने अपने आप नहीं बनाये, वे भी प्रकृति ने रचे हैं।

नन्हीं! जो यह सब कुछ तत्व से जानता है, वह आत्मा में स्थित होकर प्रकृति रचित गुणों तथा गुण प्रेरित शुभ या पुण्य कर्मों के फलों से संग नहीं करता। वह यज्ञ, तप, दान तथा शास्त्र ज्ञान के पुण्य फलों को उलांघ जाता है और आत्मा में आत्मा हो जाता है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुन संवादे अक्षर ब्रह्मयोगो नाम

अष्टमोऽध्याय:।।८।।  

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