अध्याय ८
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।२७।।
शुक्ल कृष्ण पक्ष के विवेक के विषय में भगवान कहने लगे, हे पार्थ!
शब्दार्थ :
१. इन दोनों मार्गों को जानता हुआ,
२. कोई भी योगी मोहित नहीं होता।
३. इस कारण हे अर्जुन! तुम सब काल में योग युक्त रहो।
तत्व विस्तार :
क) एक ओर मृत्यु, दूजी ओर अमरत्व जो जान लेता है,
ख) एक ओर अंधेरा, दूजी ओर प्रकाश जो जान लेता है,
ग) एक ओर सुख दु:ख, दूजी ओर नित्य आनन्द जो जान लेता है,
घ) एक ओर अज्ञान और दूजी ओर महान् ज्ञान जो जान लेता है,
ङ) एक ओर वियोग, दूजी ओर योग जो जान लेता है,
च) एक ओर जड़, दूजी ओर चेतन जो जान लेता है,
छ) एक ओर भिखारी, दूजी ओर दाता जो जान लेता है,
वह मोहित नहीं होता।
फिर जहाँ :
1. नित्य अनित्य विवेक भी हो जाये,
2. साधक आत्म तत्व को भी जान ले,
3. जग क्षण भंगुरता भी पहचान ले,
वह परम की ओर जायेगा ही। वह कैसे मोहित हो सकेगा? जो ज्ञान को विज्ञान सहित जानता हो और अविद्या तथा अज्ञान को भी जानता हो, वह श्रेय की ओर जायेगा। जो आत्मा को तत्व से जानता हो और अनात्मा को भी समझता हो, वह आत्मा की ओर आकर्षित होगा ही। वह मोह ग्रसित नहीं हो सकता।
भगवान अर्जुन को कहते हैं, ‘तू भी तो आत्मा तथा अनात्मा को जान गया है, इस कारण,
1. निरन्तर योग युक्त हो।
2. अपना ध्यान अपने तन से हटा कर आत्मा में टिका ले।
3. अपने तन से आसक्ति छोड़ कर, आत्मा में भक्ति कर।
4. कर्म फल चाहना छोड़ कर आत्मवान् बनने की चाहना कर।
5. हर पल अपने आपको आत्मा जान, अपने तन तथा मान अपमान की परवाह न कर।
6. अपने आपको आत्मा जानते हुए जीने का अभ्यास कर।
7. अपने आपको आत्मा जानते हुए अपने तन, मन और बुद्धि का दान देने का प्रयत्न कर।
8. हर पल अपने आपको आत्मा जानते हुए आत्म तत्व में रहने का अभ्यास कर।’