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Chapter 8 Shloka 22
पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।२२।।
That One within whom all beings are encompassed,
by whom this entire world is permeated,
That Supreme Purusha can be attained
through exclusive devotion.
Chapter 8 Shloka 22
पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।२२।।
Talking about the attainment of the Unmanifest, Indestructible Essence through unswerving devotion, the Lord says, O Arjuna!
That One within whom all beings are encompassed, by whom this entire world is permeated, That Supreme Purusha can be attained through exclusive devotion.
My very dearest Kamla Bhabhi, listen to what the Lord is saying!
a) He has just spoken of the Supreme abode.
b) He has spoken of the indivisible Atma Itself.
c) He has told us of that divine, pure Light Itself.
d) He has just told us of the indestructible, eternal, indivisible Truth.
In speaking of that Supreme Essence, He says:
1. Just love – and you will receive all.
2. My friend, forget all else and love Me.
3. Give your body to the world; it is indeed Mine! Abide in Me.
4. Give Me your mind. This mind unnecessarily involves you in sorrow and joy. Concentrate on Me alone.
5. Listen! This Divine Essence is the only thing worth attaining and knowing in life.
This entire gross and conscious world is established within that same Atma Self; and it is this same Atma which permeates this entirety. It behoves us to attain That divine Supreme Purusha, for only That One is worth striving for. Our only duty is to merge – Atma with Atma. We must disentangle ourselves from the union of gross and consciousness and attain oneness with the Atma.
The Lord now specifies that such a union is possible only through exclusive devotion.
Love of the worldly individual
a) The worldly individual loves the one whom he considers to be his aide.
b) He loves the one who helps him in the fulfilment of his desires.
c) He loves the other for purposes of body establishment.
Love for the Lord
1. Love for the Lord springs forth from the realisation that He is one’s Atma Self.
2. It emerges from the knowledge that He is one’s very own.
3. Such love comes from the knowledge of one’s basic essence.
Love for the Lord happens when the individual believes that “Whatever the ‘I’ does is inevitably wrong; only what is done by the Lord is true and correct. The detachment of the Lord with His body is correct and ‘my’ constant identification with the body is wrong. I, too, must mould my life in accordance with the Lord’s injunctions. His divine qualities should flow from this body. My essential core is analogous to His; it is my form which is aberrated and impure because I have distanced myself from my true Self.”
Little one, knowing this, when the individual longs to be established in his true Self, devotion emerges. He pleads for reunion with his essential being from whom he has been parted so long. The Lord says, when one is thus immersed in exclusive devotion towards one’s Atma Self, one attains the Supreme Lord forthwith. The devotee, agonised with the pain of parting from his Beloved Lord, becomes a veritable Aarti or the vessel of worship himself. Thus he offers himself at the Lord’s feet.
अध्याय ८
पुरुष: स पर: पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्त:स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।२२।।
अनन्य भक्ति से अव्यक्त अक्षर तत्व की प्राप्ति के विषय में कहते हुए भगवान कहने लगे, हे अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. जिसके अन्तर्गत सर्वभूत समाहित हैं,
२. जिससे यह पूर्ण जग परिपूर्ण है,
३. वह परम पुरुष अनन्य भक्ति से प्राप्त होने योग्य है।
तत्व विस्तार :
देख मेरी जाने जान कमला भाभी! भगवान क्या कहते हैं!
क) वह परम धाम की बात कह कर आये हैं।
ख) वह अखण्ड आत्म स्वरूप की बात कह कर आये हैं।
ग) वह दिव्य, विशुद्ध प्रकाश स्वरूप की बात कह कर आये हैं।
घ) वह अक्षर, नित्य शाश्वत् अव्यय तत्व की बात कह कर आये हैं।
उस परम स्वरूप की बात कह कर उन्होंने देख क्या कह दिया।
1. बस प्यार कर, तुझे सब कुछ मिल जायेगा।
2. बस मेरे सखा! सब कुछ भूल कर मुझे प्यार कर।
3. तन जहान को दे दे, यह मेरा ही है और तू मुझ में ही समा जा।
4. मन मुझे दे दे, यह तो नाहक ही तुझे दु:खी सुखी करता है। ध्यान निरन्तर मेरे में ही लगाया कर।
5. अरे सुन! जीवन में प्राप्तव्य और ज्ञातत्व भी यही स्वरूप है।
इसी आत्म तत्व स्वरूप के आन्तर ही तो यह सब जड़ चेतन सृष्टि स्थित है और सम्पूर्ण सृष्टि में वह आत्मा ही तो परिपूर्ण व्याप्त है। उस दिव्य परम पुरुष को ही तत्व रूप से पाना बनता है। वह दिव्य परम पुरुष ही पाने योग्य है। आत्मा में आत्मा हो जाना ही एक मात्र कर्तव्य है। जड़ चेतन संयोग से वियोग करके आत्मा से योग ही प्राप्तव्य है।
भक्त का प्रेम :
फिर भगवान कहते हैं कि अनन्य प्रेम से ही यह योग हो सकता है।
नन्हीं! दुनिया में जीव,
क) दूसरे को अपना सहयोगी मानकर प्यार करते हैं।
ख) अपनी कामना पूर्ति में सहयोग करने वाले से प्रेम करते हैं।
ग) दूसरे को अपनी तनो स्थापना अर्थ प्रेम करते हैं।
भागवद् प्रेम :
भगवान से प्रेम,
क) अपना आत्म स्वरूप जानकर किया जाता है।
ख) अपना आप जानकर किया जाता है।
ग) अपना वास्तविक स्वरूप जानकर किया जाता है।
भगवान से प्रेम तब ही होगा जब जीव यह मान ले कि जो भी ‘मैं’ करती है वह ग़लत है, भगवान ने जो किया, वह ही ठीक है। भगवान की नित्य तनो असंगता ठीक है और मेरी नित्य तनो तद्रूपता ग़लत है। मुझे भगवान जैसा जीवन बनाना चाहिये। मेरे तन राही भागवद् गुणों का प्रवाह होना चाहिये। मेरा स्वरूप तो वही है जो भगवान का है, मेरा रूप विकृत हो गया है क्योंकि मैं स्वरूप से अलग हो गया हूँ।
नन्हीं! यह सब जानकर जीव जब अपनी स्वरूप में स्थिति के लिये तड़प जाता है, उसे भक्ति कहते हैं। वह अपने चिर बिछुड़े स्वरूप को पाने के लिये आर्त हो जाता है, तब वह स्वयं ‘आरती’ कहलाता है। भगवान कहते हैं, ‘जब अपने आत्म स्वरूप से अनन्य भक्ति हो जाये तब जीव परमात्मा को ही पा लेता है।’ परम से वियोग के विरह से पीड़ित भक्त स्वयं ‘आरती’ होता है। वह ‘आरती’ उतारता नहीं, बल्कि आरती बनकर अपने आपको भगवान के चरणों में चढ़ा देता है।