Chapter 3 Shloka 34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।३४।।

The Lord warns the individual:

One’s organs of sense must desist from

the influence of attractions and repulsions

that inhere sense objects, because both these are

a hindrance on the path of spiritual living.

Chapter 3 Shloka 34

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।३४।।

The Lord warns the individual:

One’s organs of sense must desist from the influence of attractions and repulsion that inhere sense objects, because both these are a hindrance on the path of spiritual living.

The Lord says ‘Do not let your senses be controlled by the gunas of attraction and repulsion that lie latent in all sense objects.’ Little one, first understand the full connotation of ‘Raag’ and ‘Dvesh’ (राग द्वेष).

Raag (राग) connotes the focus of one’s likes, attraction, sympathy, greed, affection, favour etc.

1. Raag arouses a persevering endeavour to attain the object one likes.

2. It leads to greed, attachment, dependence and subservience to the desired object.

3. The intensity of one’s desire to acquire that object leads to blindness and a loss of one’s sense of justice.

4. The individual becomes helpless due to the onslaught of raag, and he will go to any length to achieve the desired object. Failure to do so leads to extreme agitation. Raag or attraction to an object can compel him to adopt callous and cruel methods of achieving his purpose and drives him away from divine qualities.

Dvesh (द्वेष) is:

1. What is not by your taste or willing;

2. revulsion or enmity;

3. adverse mental reactions;

4. the opposite of desire;

5. jealousy.

Dvesh with any object makes the individual want to destroy that object and to escape from it. Enmity with the object of one’s dvesh impels the individual towards degrading acts and extreme measures to be free of the object.

Likes and dislikes tend to make one:

a) heartless and blind to others;

b) individualistic;

c) they prevent one from seeing the Truth;

d) they deprive one of the intellect;

e) they mar one’s peace of mind;

f) they instigate the individual towards undesirable conduct;

g) they deprive him of his strength.

Thus the individual misuses his abilities and his character deteriorates.

Thus, raag and dvesh:

a)  generate moha and ignorance;

b)  veil the intellect;

c)  cause mental dissatisfaction and agitation;

d)  are the cause of possessiveness and mental aberrations;

e)  are inimical to detachment and impartiality;

f)   are hindrances in the path of a stable intellect;

g)  lead the individual towards the path of degradation and darkness.

The Lord therefore stresses that both raag and dvesh divert the individual from the path of Truth. One must remain uninfluenced by them. They lead one away from humane attitudes and alienate the individual from his true Self. It is absolutely imperative for a sadhak to gain control over both raag and dvesh.

It is important to note that raag and dvesh are inherent in each other. If a person desires something then he rejects whatever proves to be a hindrance in its attainment and vice-versa. Both raag and dvesh are aberrations – twins born simultaneously of one ‘mother’ – attachment. Raag is the first born of the twins, but it is difficult to separate the two.

अध्याय ३

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।

तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।३४।।

भगवान कहते हैं, मनुष्य को चाहिये कि वह:

शब्दार्थ :

१. ज्ञानेन्द्रियों को, इन्द्रियों के विषय में स्थित जो राग द्वेष हैं,

२. उन दोनों से वशीभूत न होने दे,

३. क्योंकि वह दोनों इसके (पुरुष के),

४. पथ में विघ्न डालने वाले हैं।

तत्व विस्तार :

भगवान कहते हैं कि इन्द्रियों को विषयों में स्थित राग और द्वेष के वश में न होने दे।

नन्हीं आभा! प्रथम, राग और द्वेष को समझ ले।

राग :

क) पसन्द को कहते हैं।

ख) रुचि पूर्णता को कहते हैं।

ग) आकर्षण को कहते हैं।

घ) सहानुभूति को कहते हैं।

ङ) लग्न को कहते हैं।

च) लोलुपता को कहते हैं।

छ) स्नेह को कहते हैं।

ज) प्रिय को कहते हैं।

जहाँ राग हो जाता है, जीव :

1. उस विषय को पाने के लिये नित्य यत्न करता रहता है।

2. उस विषय का लोभी हो जाता है।

3. उस विषय के आश्रित हो जाता है।

4. उस विषय का आसक्त हो जाता है।

5. उस विषय का चाकर बन जाता है।

6. उस विषय के बारे में न्याय नहीं कर सकता तथा उसके प्रति अन्धा हो जाता है।

7. उस विषय के कारण निर्बल हो जाता है।

8. उस विषय की प्राप्ति के लिये सब कुछ करने को तैयार हो जाता है।

यदि जीव को वह वस्तु प्राप्त न हो तो जीव अतीव विचलित हो जाता है। विषय से राग ही जीव को सद्गुणों से दूर कर देता है तथा क्रूर कर्म करने पर मजबूर कर देता है।

द्वेष :

नन्हीं! अब द्वेष को समझ ले :

1. द्वेष का अर्थ अरुचिकर कह लो।

2. द्वेष घृणा तथा शत्रुता को कहते हैं।

3. द्वेष विरोधपूर्ण मनोभाव को कहते हैं।

4.  द्वेष अनिच्छा को भी कहते हैं।

5. द्वेष ईर्ष्या को भी कहते हैं।

जिस विषय से द्वेष हो जाये, जीव उसे छोड़ और तोड़ देना चाहता है और उससे दूर भागना चाहता है। जीव उससे शत्रुता करने लग जाता है और उसे दूर करने के लिये सब कुछ करने को तैयार हो जाता है। उस द्वेष पूर्ण विषय के मिटाव के लिये जीव अनेकों अनुचित काज भी करने लगता है।

नन्हीं राग और द्वेष ही :

क) जीव को निर्दयी बना देते हैं।

ख) जीव को अन्धा बना देते हैं।

ग) जीव को व्यक्तिगत कर देते हैं।

घ) जीव को विषय की सत्यता नहीं देखने देते।

ङ) जीव को बुद्धि हीन कर देते हैं।

च) जीव की शान्ति को भंग कर देते हैं।

छ) जीव को नित्य उत्तेजित कर देते हैं।

ज) जीव को निर्बल बना देते हैं।

इस राग और द्वेष के कारण ही जीव अपनी शक्तियों का नित्य दुरुपयोग करता है और अपनी श्रेष्ठता से गिर जाता है।

नन्हीं! यदि तुम ध्यान से देखो तो जान जाओगी कि यह राग और द्वेष ही :

1. मोह उत्पन्न करते हैं।

2. अज्ञान को उत्पन्न करते हैं।

3. बुद्धि को आवृत करते हैं।

4. अतृप्ति का कारण हैं।

5. उद्विग्नता का कारण है।

6. जीव में ममत्व भाव का कारण भी हैं।

7. जीव के मन में विकार उत्पन्न तथा एकत्रित करते हैं।

8. उदासीनता के नित्य वैरी हैं।

9. निरपेक्षता के नित्य वैरी हैं।

10. निरासक्ति के नित्य वैरी हैं।

11. स्थिर बुद्धि के नित्य वैरी हैं।

12. जीव को प्रेय पथ की ओर नियोजित करने वाले हैं।

इस कारण भगवान कहते हैं कि यह दोनों ही पथ भ्रष्ट करने वाले हैं। इन दोनों के वश में नहीं होना चाहिये। यही तो जीव को उसकी इन्सानियत से गिरा देते हैं और उसके स्वरूप से वंचित कर देते हैं। इन्सान के लिये, विशेषकर साधक के लिये, इन्हें वश में करना अनिवार्य है।

नन्हीं! हर राग में द्वेष भी निहित है तथा हर द्वेष में राग भी निहित होता है। एक विषय से राग हो जाये तो उस विषय की प्राप्ति की राह में जो आये, उससे द्वेष हो जाता है। इन्सान उस विषय को मिटाने के लिये क्या कुछ नहीं कर बैठता? किसी भी राग युक्त स्थिति या विषय को पाने के लिये जीव द्वेष करता है।

राग और द्वेष, दोनों आसक्ति के कारण उठे हुए मनो विकार हैं। आसक्ति ही इनकी जन्मदायिनी माँ है। आसक्ति से प्रथम राग उठता है तत्पश्चात् द्वेष उठ आता है। किन्तु गर ध्यान से देखें तो राग और द्वेष दोनों एक साथ ही जन्म लेते हैं। जहाँ राग है, वहाँ द्वेष भी होगा ही। इनको अलग करना कठिन है।

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