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Chapter 3 Shloka 25
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद् विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।२५।।
Bhagwan now specifically advises the learned man of wisdom:
O Arjuna, just as ignorant individuals attached to action
perform deeds, so also must a wise person
engage in action, albeit in a spirit of
detachment and for universal benefit.
Chapter 3 Shloka 25
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद् विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।२५।।
Bhagwan now specifically advises the learned man of wisdom:
O Arjuna, just as ignorant individuals attached to action perform deeds, so also must a wise person engage in action, albeit in a spirit of detachment and for universal benefit.
Little Sadhak! The Lord directs the learned man: just as ignorant men perform actions through attachment, the enlightened one must perform the same actions but without attachment.
1. He should live like an ordinary person in varied circumstances, but be uninfluenced by those circumstances.
2. He must remain impartial to joy and sorrow in ordinary life.
3. He must give proof of his adherence to duty in his family life. His life should be an example of undifferentiated love towards friends and foes alike.
4. The man of wisdom must live uninfluenced, among people who are full of attachment and malice.
5. He must demonstrate in ordinary life how one can love both friend and foe equally.
6. He must show how one can be indifferent to likes and dislikes.
7. He must give proof of how to live without rancour amidst the angry and bad tempered.
8. He must also demonstrate how one can be indifferent to praise and insult.
9. The proof of his objectivity will lie in his impartiality even towards those who love him immensely.
10. There must be an equitable attitude towards withdrawal from actions or perusal of deeds, towards good and evil actions.
11. How can one’s life acquire the attitude of yagya in ordinary circumstances? His life must illustrate this. His selflessness, desirelessness, contentment and equanimity must be proved in ordinary life.
12. That it is possible to live with an even minded attitude in the midst of loss or gain, without wishing to possess anything, is only proved in one’s ordinary life.
13. Such a one must show compassion, charity and mercy; humility, non-violence, fearlessness and vigour in his day to day living.
14. He must be an example of forbearance, charity and renunciation in ordinary life, whilst living with ordinary people.
To substantiate one’s inherent divine qualities in such circumstances is the highest sadhana, as well as proof of one’s abidance in the Self.
This is the Lord’s injunction to man whenever He has taken birth in the world:
a) Give proof of your impenetrable silence and the world will understand the true essence of silence.
b) Be impervious to your body self and identify with others – if you can practice this in ordinary life, you will be illuminating the practical application of Advaita or non-duality.
c) How one can live in ordinary circumstances and still be extraordinary, how divine qualities are nurtured in adversity – this proof can only be given in practice.
The true sadhak, Atmavaan and man of wisdom act in the aforesaid manner. This is the method of rising above one’s body self and of establishing the Lord’s Name, the family dharma, and the humane qualities. The welfare of the community and the nation also lies in this attitude.
अध्याय ३
सक्ता: कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद् विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।२५।।
अब भगवान ज्ञानी जन को स्पष्ट आदेश देते हैं :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! कर्म में आसक्त हुए अज्ञानी जन जैसे कर्म करते हैं,
२. अनासक्त हुए विद्वान भी वैसे ही लोक संग्रह अर्थ कर्म करें।
तत्व विस्तार :
देख नन्हीं साधिका आभा! यहाँ भगवान स्पष्ट शब्दों में ज्ञानी तथा विद्वान् लोगों को आदेश दे रहे हैं कि :
1. साधारण लोग दिनचर्या में जो कर्म करते हैं, ज्ञानी को चाहिये कि वह निरासक्त होकर वह भी वही कर्म करे।
2. साधारण लोग दिनचर्या में जैसे जीते हैं, ज्ञानी को भी चाहिये कि वह निरासक्त होकर वैसे ही जिये।
3. विभिन्न परिस्थितियों में लोग जैसे रहते हैं, ज्ञानी भी उदासीन हुआ उन्हीं परिस्थितियों में रहे।
4. उसको चाहिये कि वह साधारण जीवन में सुख दु:ख के प्रति निरपेक्ष भाव का प्रमाण दे।
5. कुल समूह में कैसे कर्तव्य परायण होकर जीते हैं, इसका अपने जीवन में प्रमाण दे।
6. वैरी और मित्र के प्रति कैसे सम भाव से प्रेम करते हैं, इसका साधारण जीवन में रह कर प्रमाण दे।
7. राग और द्वेष से साधारण जीवन में कैसे अप्रभावित रह सकते हैं, ज्ञानी को चाहिये कि राग और द्वेष पूर्ण लोगों के पास रह कर इसका राज़ सुझाये।
8. क्रोध पूर्ण व्यक्ति के पास अनुद्विग्न होकर कैसे रहते हैं, यह जीवन में प्रमाण सहित दर्शाये।
9. मान तथा अपमान के प्रति वह निरपेक्ष रह कर दिखाये।
10. रुचि और अरुचिकर से घिरा हुआ जीव कैसे रहे, वह अपने ही जीवन के प्रमाण से समझाये।
11. उससे जो अतीव प्रेम करते हैं, उनके प्रति निर्मम भाव कैसे होता है, वह जीवन में प्रमाणित करके दिखाये।
12. साधारण जीवन में निवृत्ति और प्रवृत्ति, दोनों की ओर सम भाव रख कर दिखाये।
13. साधारण जीवन में शुभ मिले या अशुभ, दोनों में सम भाव रख कर दिखाये।
14. साधारण परिस्थितियों में जीवन यज्ञमय कैसे हो सकता है, जीवन यज्ञमय बनाकर दिखाये।
15. साधारण जीवन में निष्काम भाव का प्रमाण दे।
16. द्वन्द्व पूर्ण परिस्थितियों में निर्लिप्त तथा उदासीन रह कर दिखाये।
17. पूर्ण विषय भोगते हुए भी नित्य तृप्त रहकर दिखाये।
18. हानि लाभ, जीत हार के प्रति समचित्त कैसे रहते हैं, प्रमाण देकर समझाये।
19. निर्योगक्षेम कैसे होते हैं, साधारण जीवन में जीकर दर्शाये।
20. करुणा, दया, क्षमा, अहिंसा का साधारण जीवन में प्रमाण दे।
21. निर्भयता, तेज, धृति, धैर्य का साधारण जीवन में प्रमाण दे।
22. तप का साधारण जीवन में प्रमाण दे।
23. साधारण जीवन में, साधारण लोगों के पास रह कर, त्याग तथा दान का प्रमाण दे।
नन्हीं! साधारण लोगों के पास रह कर, साधारण जीवन में निरासक्त होकर भागवत् गुणों का प्रमाण देना ही सर्वोच्च साधना है और आत्मवान् की स्थिति का प्रमाण है।
भगवान् स्वयं भी जब जब जन्म लेते हैं, यही कहते हैं :
क) ‘अखण्ड मौन का प्रमाण दो साधारण जीवन में, तब ही तो जग भी समझ सकेगा कि मौन किसे कहते हैं।’
ख) ‘अपने तन से बेसुध होकर दूसरों के तद्रूप कैसे होते हैं, इसका साधारण जीवन में प्रमाण दो, विज्ञानमय अद्वैत तब ही समझ आ सकता है।’
ग) ‘साधारण लोगों में और साधारण परिस्थितियों में रह कर विलक्षणता के चिह्न और दैवी गुण कैसे पलते हैं, इसका प्रमाण दो।’
नन्हीं! वास्तव में सच्चा साधक, आत्मवान् तथा ज्ञानवान् करता भी यही है। वास्तव में, तनत्व भाव अभाव की विधि भी यही है। भगवान का नाम, कुल का धर्म और इन्सानियत भी वास्तव में इसी में निहित है। जाति और देश का कल्याण भी इसी में निहित है।