Chapter 3 Shloka 26

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।२६।।

Instructing the man of wisdom, the Lord says:

An enlightened person should not create confusion

in the minds of those ignorant beings

who are attached to action.

Performing all actions with equanimity himself,

he should induce them into righteous conduct.

Chapter 3 Shloka 26

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।२६।।

Instructing the man of wisdom, the Lord says:

An enlightened person should not create confusion in the minds of those ignorant beings who are attached to action. Performing all actions with equanimity himself, he should induce them into righteous conduct.

The Lord warns the learned and wise:

1. Your actions should not cause confusion in the minds of ordinary people.

2. Do not cast aspersions on them – no matter what they do.

3. Instead, work alongside them as a Yogi, instructing them – if asked, only to the extent of their ability to perform.

4. Inspire them to perform those deeds which they are able to perform and yet are not doing.

5. Do not sit on a pedestal and burden them with knowledge that they cannot imbibe.

6. Knowledge is best disseminated whilst one works with others as one of them.

Little one, the Lord says, “Perform actions as they do” – the only difference must be:

a) Remain untouched by your own body.

b) Be detached and then perform action.

c) Be devoid of any selfish motive whilst you act.

d) Act in a spirit of yagya and without looking for the fruit of your effort.

e) Do not work for recognition.

f) Do not be attached to what you know or to your own state.

g) Do not think of any work as below your dignity. Perform all actions with the utmost care, perseverance and adroitness, having forgotten your body self.

The only consideration must be to perform all these actions with an attitude of detachment. Do your utmost to fulfill the other’s dreams. This is the sign of an Atmavaan and proves his abidance in the Self.

1. The actions of a gyani or a man of wisdom must match his own knowledge. He does not criticise others, nor does he lay any standards for their conduct.

2. He has no attachment to his own body but casts no aspersions on those who are attached.

3. He may sacrifice his own reputation but strives to establish the reputation of the other, at all costs.

4. He does not seek self-establishment but gives his all to establish the other.

Thus does the man of wisdom inspire others to follow the path of Truth through precept rather than through injunction. He also gives full credit for the work to the person whose job he helps to accomplish.

अध्याय

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।२६।।

भगवान् ज्ञानियों को आदेश देते हुए आगे कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. ज्ञानवान् को चाहिये कि वह कर्म आसक्त अज्ञानियों में बुद्धि भेद उत्पन्न नहीं करे,

२. किन्तु स्वयं, उपयुक्त कर्मों को करते हुए

३. उन्हें सत् कर्मों में प्रवृत्त करें।

तत्व विस्तार :

देख नन्हीं! भगवान फिर से ज्ञानीजन को आदेश देते हुए कहते हैं और सावधान भी कर रहे हैं कि :

1. अज्ञानियों की बुद्धि में नाहक भेद उत्पन्न नहीं करो।

2. वे जैसा भी करते हैं, उन पर आक्षेप मत करो।

3. वे जो कर्म करते हैं, उनके साथ तुम योगयुक्त हुए कर्म करो।

4. यदि कोई पूछे तुमसे तो उसे तुम उतना बता दो, जितना वह कर सके।

5. जो वे कर सकते हैं और करते नहीं, उन कर्मों के लिये उन्हें शनै: शनै: प्रेरित करो।

6. तुम अपना ‘उच्च’ ज्ञान नाहक उन पर मत मढ़ो।

7. कर्म करते करते जितना वे समझ सकें, उतना उन्हें समझा देना।

8. तुम उच्च आसन पर मत बैठो, साधारण जीवों के साथ मिल कर साधारण जीवन के काज करो।

देख नन्हीं! जो भी कोई करता है, वही तुम करो। भेद केवल इतना चाहिये :

क) तुम अपने तन से निर्लिप्त रहो।

ख) तुम निरासक्त हुए कर्म करो।

ग) तुम निष्काम भाव से कर्म करो।

घ) तुम यज्ञमय जान कर कर्म करो।

ङ) तुम बिन फल की चाह के कर्म करो।

च) तुम बिन मान की चाह के कर्म करो।

छ) अपने ज्ञान से संग मत करो।

ज) अपनी स्थिति से संग मत करो।

झ) किसी भी कार्य को न्यून मत समझो।

ण) कर्मों को अतीव सावधानी तथा कुशलता से करो।

ट) कर्मों को अतीव दक्षता तथा निपुणता से करो।

ठ) तनत्व भाव भूल कर, जान लड़ा कर कर्म करो।

किन्तु याद रहे, निष्काम और निरासक्त भाव से कर्म करो। नन्हीं! स्वप्न औरों के हों और तुम अपनी जान लड़ा दो उन्हें पूर्ण करने में, यही आत्मवान् का रूप है। इसी में भगवान का स्वरूप निहित है।

नन्हीं! ज्ञानी लोग :

1. अपने ज्ञान से आप तुलते हैं, लोगों को नहीं तोलते।

2. वे स्वयं ज्ञान स्वरूप होते हैं और उनका अपना जीवन विज्ञानमय होता है।

3. वे स्वयं तनत्व भाव को छोड़ते हैं, औरों पर आक्षेप नहीं करते।

4. वे स्वयं निरासक्त होते हैं, औरों से निरासक्ति की आकांक्षा नहीं रखते।

5. वे स्वयं अपने मान को त्यागते हैं, दूसरों का मान तो वे नित्य स्थापित करने का यत्न करते हैं।

6. वे अपने आपको स्थापित नहीं करते, औरों को तो ये नित्य स्थापित करते हैं।

इस कारण ये ज्ञानी जन लोगों के काम करते हुए, लोगों को उन्हीं के कर्मों में प्रेरित करते हैं और जिसके काम हों, कार्य सफ़लता का फल भी उन्हें ही दे देते हैं।

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