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Chapter 3 Shloka 10
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।१०।।
Now Bhagwan elucidates His point with the example of the Creator – Prajapati:
The Creator, at the beginning of creation,
wrought man along with the spirit of yagya and said:
“By this yagya may you prosper and multiply!
May this yagya fulfil you and your coveted desires.”
Chapter 3 Shloka 10
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।१०।।
Now Bhagwan elucidates His point with the example of the Creator – Prajapati:
The Creator, at the beginning of creation, wrought man along with the spirit of yagya and said; “By this yagya may you prosper and multiply! May this yagya fulfil you and your coveted desires.”
Little one! First understand ‘Prajapati’:
1. Prajapati is the power that presides over this entire Creation.
2. Prajapati is an epithet of Brahm.
3. All things, animate or inanimate, are His creation.
4. All are supported and maintained by Him.
5. Prajapati is the Lord who causes the birth of the entire animate and inanimate world. This entire universe is His creation.
6. It is said that the creation, sustenance and dissolution of the Universe are in His hands.
7. He is the Supreme Sustainer and Protector of the Universe.
8. He is the Controller and Universal Law Maker.
9. Those who live in accordance with His laws, abide in bliss.
10. He is the support of joy and sorrow. With His inspiration and at His pleasure, various tasks of the world are conducted.
11. With the permission of That One, the world interacts and exists.
Yagya was also created by Prajapati along with the creation of the world. He blessed all for progress and happiness through the performance of yagya – or deeds performed for the other in a spirit of devotional offering. In this sense, He made all dependent on one another. “Take and give to each other in order to prosper.”
Prajapati Himself is the Supreme Giver. He wrought the world of the five elements for our benefit but He sought nothing in return.
1. The sun gives light to the world and each one is nourished by its warmth. It gives us vision and expects nothing from us in return.
2. The praanas or life breath cannot survive without vaayu – the air. Nor are we able to speak or hear without this element created by Prajapati. Yet, air seeks nothing from us in return.
3. Earth is the substratum of all creation. Earth bestows food and nourishes us. It also encompasses the lifeless in its embrace. People trample it, yet it remains silent and demands no reward.
a) All these are examples of Prakriti’s yagya – giving without seeking anything in return. This is the silent spirit of God – the nature of That Brahm.
b) He creates this beautiful world but is not attached to it. Therefore He is faultless.
c) He does not claim this entire creation which is wrought by Him as His own. Thus He is nirmam – devoid of ‘I’ and ‘mine’. He is Purity in essence.
d) He gives freely of the qualities of His Prakriti to all. Even if someone causes harm to Prakriti, He remains ever silent.
Therefore, That Supreme One, full of divine qualities, is called a merciful God. His essential nature is spiritual. His deeds define Gyan. That Divine Master of the universe is Brahm. The entire Universe forms the sphere of His deeds, yet He is devoid of doership. This is His yagya. This is the spirit of Adhyatam.
Adhyatam
1. To abide in Adhyatam is to imbibe this nature of Brahm.
2. It is to bring the qualities of Brahm into life. To usher in those divine qualities within oneself is true worship.
3. He who does this, successfully, is verily the Lord’s image. In this world, bound by the laws of destiny, he is God in human form.
4. You may call Him an Atmavaan. He has achieved the silence that is a natural outcome of yagya. Call Him Shiva, call Him Ram, call Him Shyam, His Essence is that of Brahm, His gross form is the world and his subtle form is yagya.
Little Sadhak! You too must do what Prajapati Himself has asked of you.
1. The life of a devta or divine being is replete with yagya.
2. He who spends his entire ability in the service of others, becomes godlike.
3. Selfless actions have to be practised to attain divinity. The culmination of selfless deeds takes one beyond this state; it purifies the sadhak, eradicating the idea of ‘I am the body’. Every beautiful quality inheres in the practice of selfless deeds.
अध्याय ३
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्।।१०।।
अब भगवान ब्रह्म के रचनात्मक रूप, प्रजापति के बारे में यही वचन कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. प्रजापति ने कल्प के आदि में
२. यज्ञ सहित प्रजा को रच कर कहा
३. ‘इस यज्ञ से तुम वृद्धि पाओ; (और)
४. यह यज्ञ तुम्हारी अभीष्ट कामनाओं को पूर्ण करने वाला हो।’
तत्व विस्तार :
नन्हीं! पहले प्रजापति को समझ लो :
1. प्रजापति सृष्टि के अधिष्ठाता अंश को कहते हैं।
2. प्रजापति ब्रह्म का ही एक विशेषण है।
3. पूर्ण सृष्टि के रचयिता को प्रजापति कहते हैं।
4. सर्वाधार और नियमन करने वाले को प्रजापति कहते हैं।
5. प्रजापति चर अचर तथा जड़ चेतन को जन्म देने वाले देवता को कहते हैं।
6. यह पूर्ण सृष्टि प्रजापति का राज्य मानी जाती है।
7. कहते हैं कि उत्पत्ति, स्थिति और सृष्टि का लय प्रजापति के हाथों में है।
8. पूर्ण विश्व का पोषण और संरक्षण करने वाले प्रजापति है।
9. प्रजापति सृष्टि के नियमन कर्ता तथा जग के कानून रचयिता माने जाते हैं।
10. प्रजापति के रचे हुए कानूनों पर जो चलें, वह नित्य आनन्द में रहते हैं।
11. पूर्ण सृष्टि के संचालक और सुख दु:ख का आधार भी प्रजापति है।
12. वह प्रेरक ही प्रेरणा देते हैं जीवन में विभिन्न काज करने की।
13. ईषण कर्ता वह ही हैं। वह ही संचालित करते हैं पूर्ण सृष्टि को।
14. अनुमन्ता कर्म स्वीकृति देते हैं, तब ही जग कायम रहता है।
>भगवान कहते हैं, उस प्रजापति ने जग रचा, यज्ञ सहित जग को रच कर कहा ‘फलो फूलो और बढ़ो! इस यज्ञ राही तुम सुख पाओ; वांछित चाहना पा करके समृद्धिवान् तुम हो जाओ।’
1. सृष्टि रचना जब रची, यज्ञ भी उत्पन्न कर दिया।
2. इक दूजे पर मानो, सब को ही आश्रित कर दिया।
3. हर वस्तु, हर जीव को लेने वाला भी और देने वाला भी बना दिया।
प्रजापति तो केवल देते ही हैं, वह जीव से कुछ नहीं लेते। पंच तत्व पूर्ण सृष्टि रचते हैं, पर वह कुछ भी तो नहीं माँगते जीव से, इसे फिर से समझ!
1. सूर्य जग को रोशन करता है और उसकी दी हुई ऊष्णता में सब पलते हैं। सब के नयन की ज्योति सूर्य बनता है, पर वह अपने लिये कुछ नहीं चाहता।
2. वायु के बिना प्राण नहीं रह सकते, वायु के बिना वाक् नहीं बह सकते, वायु के बिना श्रवण नहीं हो सकता, पर वायु किसी से कुछ नहीं माँगती।
3. धरती से जग रूप धरता है और पूर्ण सृष्टि इस पर खड़ी है। धरती अन्नदायिनी है और सबको पुष्टित करती है। प्राण रहित के प्राण ले लेती है और अपने में समा लेती है। उसे जग नित्य कुचलता है पर वह मौन रहती है और बदले में इन्सान से कुछ नहीं माँगती।
क) इसी विधि सब प्राकृतिक तत्व केवल देते ही रहते हैं।
ख) प्रतिरूप में बिन कुछ माँगे वे यज्ञ ही करते रहते हैं।
ग) महामौन है वह परम तत्व।
घ) महामौन, यज्ञ स्वरूप, ब्रह्म स्वभाव को कहते हैं।
ङ) वह केवल देते हैं, सबको पुष्टित करते हैं, अपने लिये वह कुछ नहीं चाहते।
च) मौन स्वरूप, यज्ञ स्वरूप इस कारण वह कहलाते हैं।
छ) पूर्ण संसार रच करके वह अपनी ही सुन्दर रचना से संग नहीं करते, इस कारण निर्विकार कहलाते हैं।
ज) अपनी ही कृति, निज आश्रित रचना को भी ‘मेरा’ नहीं कहते। इस कारण वह निर्मम हैं। इस कारण ही उनका स्वरूप नित्य शुद्ध कहलाता है।
झ) अपनी प्रकृति के गुण वह समान रूप से सबको देते हैं और गर कोई उन पर प्रहार करे तो वह मौन रहते हैं।
दैवी गुण स्वरूप, परम स्वरूप करुणापूर्ण इस कारण ही वह कहलाते हैं। उनका स्वभाव अध्यात्म है, उनका कर्म रूप यह ज्ञान है। दिव्य अलौकिक यह विश्वपति ही तो ब्रह्म है।
यही तो उस ब्रह्म का कार्य व रूप है। पूर्ण सृष्टि रूपा क्षेत्र में उनका कर्म होता है, किन्तु कर्तृत्व भाव कहीं है ही नहीं। यही उनका यज्ञ है, यही तो अध्यात्म का स्वरूप है।
अध्यात्म :
1. अध्यात्म का अनुसरण, परम स्वभाव का अनुसरण होता है।
2. ब्रह्म के जो गुण बहते हैं, या प्रकट हुए हैं जग में, उन्हें अपने जीवन में ले आना ही अध्यात्म है।
3. अपने में उन गुणों का आवाहन करना ही पूजा है।
4. जो जीव परम के गुण पा जाये, वह भगवान कहलाता है। रेखा बधित सृष्टि में वह परम रूप बन जाता है।
5. आत्मवान् उसे कह लो, जो मौन हो जाता है।
यज्ञ के परिणाम स्वरूप जो मौन हो जाये, वह भगवान हो जाता है। वही शिव है वही राम है, श्याम उसे ही जान लो। ब्रह्म उसका स्वरूप है, जग स्थूल रूप है और यज्ञ सूक्ष्म रूप।
नन्हीं साधिका! जो प्रजापति ने कहा, तुम भी वही करो।
क) देवताओं का जीवन यज्ञमय ही होता है।
ख) जो अपनी सम्पूर्ण सार्मथ्य निष्काम भाव से औरों की सेवा में लगा दे, वह जीव देवता ही बन जाता है।
ग) निष्काम कर्म देवत्व पाने का अभ्यास रूप है। निष्काम कर्म की पराकाष्ठा देवत्व स्थिति से भी आगे है। वह तो साधक को तनत्व भाव के अभाव तलक ले जाते हैं। हर सौन्दर्य पूर्ण गुण निष्काम कर्म में निहित होता है।