Chapter 9 Shloka 27

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।२७।।

O Arjuna! Whatever you do, 

whatever you eat, whatever you sacrifice,

 whatever you bestow as a gift,

whatever you endure in life,

offer it all to Me.

Chapter 9 Shloka 27

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।२७।।

O Kamla, listen to what the Lord says to Arjuna!

O Arjuna! Whatever you do, whatever you eat, whatever you sacrifice, whatever you bestow as a gift, whatever you endure in life, offer it all to Me.

Little one, the Lord has said:

a) “Learn to live only for Me.

b) Wherever you go, travel for My sake.

c) Each moment whatever actions your body performs, do them for Me.

d) No matter for whom you are doing it, first offer that action to Me.

e) Give this body to Me.

f) Let Me abide in this body.

g) Utilise this intellect only for Me.

h) Fix your faith in Me.

i)  Try to understand My qualities.

j)  Make Me your sole aim.

k) Let Me be your sole support.”

Little one, the Lord says, “Whatever you do in life, offer it first to Me and perform every deed with Me as your witness. Place at My feet every sorrow that you incur through your endeavour to perform selfless deeds. Your well-being and your truth lies in such an attitude. Your bliss and eternal satiation will also be ensured through such an offering. The practice of annihilating the attitude of doership is also inherent in this. This is the Supreme Truth.”

Little one, through such an attitude, you will first learn how to give charity; then you will learn to bear pain and perform selfless deeds. The renunciation of all motivated actions will follow. Then you will inevitably give your body to the Lord. This entire process is spontaneous and automatic, once you offer all your actions to the Lord.

It is nothing but the Lord’s compassion and identification with us when He says, “Offer all this unto Me.” One can only offer what one owns; can a thief offer what he has stolen?

It is the Lord’s Grace that He does not address us as thieves and instead He begs us to ‘offer’ to Him what is actually His! He is imparting all this knowledge to enable us to return what we have stolen from Him. Thus He continues to appeal to us for our own sakes!

अध्याय ९

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।

यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।२७।।

हे कमला सुन! भगवान अर्जुन को क्या कहते हैं!

शब्दार्थ :

१. जो भी तू कर्म करता है,

२. जो भी तू खाता या उपभोग करता है,

३. जो भी तू हवन करता है,

४. जो भी तू किसी को दान देता है,

५. जो भी तू जीवन में सहता है,

६. वह सब मुझपे अर्पण कर दे।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! भगवान ने कहा,

क) ‘अब मेरे लिये ही जीना सीख ले।

ख) जहाँ भी तू जाये, मेरे लिये ही जा।

ग) हर क्षण, तेरा तन जो भी करे, मेरे लिये ही किया कर।

घ) जिसके लिये भी कर्म करे, मेरे अर्पण करके ही किया कर।

ङ) यह तन तू मुझे ही दे देना।

च) इस तन में तू मुझे ही धर लेना।

छ) इस बुद्धि को तू मेरे लिये ही इस्तेमाल किया कर।

ज) मुझ ही में श्रद्धा रख।

झ) मेरे ही गुण समझने के यत्न कर।

ञ) मुझे ही अपना लक्ष्य बना ले।

ट) मुझे ही अपना आधार बना ले।’

नन्हीं भगवान कहते हैं, ‘तुम जीवन में जो भी करते हो, उसे मेरे अर्पण कर दो, उसे मेरे साक्षित्व में करो। तुम जीवन में निष्काम कर्म करते हुए, जो भी दु:ख सहते हो, उन्हें भी मेरे अर्पण कर दो। इसी में तुम्हारा कल्याण है, इसी में तुम्हारा सतीत्व है। इसी में तुम्हारा आनन्द भी निहित है, इसी में तुम्हारी नित्य तृप्तता भी निहित है। इसी में तुम्हारा कर्तृत्व भाव अभाव का अभ्यास भी निहित है। यह ही परम सत् है।’

नन्हीं! यह करते करते प्रथम दान देना आ जायेगा; फिर दु:ख सहने आ जायेंगे; फिर निष्काम कर्म करने आ जायेंगे: फिर काम्य कर्म का त्याग भी आ जायेगा; फिर तुम तन भी भगवान को दे ही दोगे। यह तो सब स्वत: ही हो जायेगा, यदि आप अपने सम्पूर्ण कर्मों को भगवान को देने लग जाओगे।

यह तो भगवान की अपार करुणा है तथा आपसे तद्‍रूपता है, जो वह कह रहे हैं कि, “यह सब तू मेरे अर्पण कर दे।” अर्पण तो अपना कुछ किया जाता है, चोर क्या अर्पण करेगा?

यह तो केवल भगवान की ज़र्रानिवाज़िश है कि वह चोर को चोर न कह कर, उसी से चोरी किये सामान की भिक्षा माँग रहे हैं। वह उस से चोरी किये हुए सामान को लौटा देने के लिये उसे कितना ज्ञान दे रहे हैं। उसी को उसी के लिये मनाये चले जा रहे हैं।

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