Chapter 9 Shloka 19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।१९।।

I radiate heat, I hold back as well as

send forth the rain; and Arjuna,

I am immortality as well as death.

I am also Sat – the Eternal Truth

and I am Asat – that which is non-existent.

Chapter 9 Shloka 19

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।१९।।

The Lord now says,

I radiate heat, I hold back as well as send forth the rain; and Arjuna, I am immortality as well as death. I am also Sat – the Eternal Truth and I am Asat – that which is non-existent.

The Lord says, “I become the summer which scorches all with its heat, and it is I who withholds and showers rain upon the earth.” The Lord then says, “I am death which afflicts mortals and the nectar which grants immortality. I am also Sat – that which exists eternally and Asat or that which is non-existent.”

Little one, remember, the Lord is disseminating the deepest Truth along with its practical connotation. Try to comprehend this Truth in all its subtlety and with great concentration. Perhaps you will then understand its essence.

1. The Lord is attempting to convey the viewpoint of an Atmavaan.

2. The Lord is trying to explain the point of view of one established in the Atma.

3. The Lord is describing the viewpoint of one who has merged in the Supreme Lord of all.

4. The Lord Himself is explaining His own viewpoint!

Little one, when the Atmavaan no longer believes himself to be the body, he ceases to consider others as the body also. He knows that all are the Atma in essence. He knows the qualities or gunas of the body to be a creation of Prakriti and a play of the threefold energy of the Lord. Thus he knows that:

a) It is the gunas that interact with other gunas.

b) All actions transpire through the energy of these gunas.

c) The individual has no control over his own actions.

d) Gunas affect other gunas.

e) Gunas of one kind distance other gunas from themselves.

All qualities are inert. Ignorant souls continue to be affected by these qualities. Just as they claim their own qualities, so also they believe the others to be masters of their bodies and responsible for their own qualities. The Atmavaan knows that all qualities are endowed by Prakriti and that the body itself is also a gift of Prakriti. He also knows that Prakriti is dependent on the Indestructible Essence. Whatever is happening in this world, is transpiring within that Indivisible Essence.

The Atmavaan who abides in the Spirit, dwells in inviolable silence. In fact he dwells in his very Self. He does not differentiate between his own body or that of others. For him, all are repositories of varied qualities and one in essence, even though they may appear different.

Little one, the Atma is ever blemishless and unmanifest. Yet this entire universe is said to be the magnified form of that Atma. For that Atmavaan, for that Supreme Being, the whole universe is an expanded form of himself; seen in his individualistic form, the seemingly ordinary exterior of one who abides in the Atma reflects his non-dualistic essence. The uniqueness of such a one lies in this matchless attitude. Imparting knowledge of the Self to Arjuna, the Lord is explaining the practical form of abidance in the Atma Self. He seems to be indicating, ‘If you have to become an Atmavaan, this attitude and viewpoint is essential. Such an attitude can be gained only if you constantly use it in your ordinary day to day living and interaction with others.

अध्याय ९

तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।

अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।१९।।

अब भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. मैं ही तपाता हूँ;

२. मैं ही वर्षा को थामता और बरसाता हूँ

३. और अर्जुन! मैं ही अमृत हूँ और मृत्यु हूँ,

४. सत् और असत् भी मैं ही हूँ।

तत्व विस्तार :

भगवान यहाँ कह रहे हैं कि, “ग्रीष्म ऋतु बन कर मैं ऊष्णता बनता हूँ और पृथ्वी पर वर्षा को थामता हूँ, फिर स्वयं ही वर्षा बन कर बरसता हूँ।” फिर कहते हैं कि, “प्राणियों की मृत्यु भी मैं ही हूँ और जो प्राणी अमृत को प्राप्त होते हैं, वह भी मैं ही हूँ। संसार में सत् असत् जो भी है, वह मैं ही हूँ।”

नन्हीं! याद रहे, भगवान महा गुह्य तत्व को ज्ञान तथा विज्ञान सहित कह रहे हैं। इसे अति सूक्ष्म दृष्टि से तथा बहुत ध्यान लगा कर समझने के प्रयत्न कर; शायद तुझे समझ आ जाये।

क) भगवान आत्मवान् के दृष्टिकोण को समझाने का प्रयत्न कर रहे हैं।

ख) भगवान आत्म स्वरूप में स्थित के दृष्टिकोण को समझाने के प्रयत्न कर रहे हैं।

ग) भगवान परमात्मा में विलीन हुए के दृष्टिकोण को समझा रहे हैं।

घ) भगवान स्वयं साक्षात् भगवान के दृष्टिकोण को समझा रहे हैं।

नन्हीं! जब आत्मवान् अपने आपको तन नहीं मानते तो वह औरों को भी तन नहीं मानते और इस नाते वह सबको आत्म स्वरूप ही मानते हैं। तन के गुणों को वह प्राकृतिक रचना और त्रिगुणात्मिका शक्ति का गुण खिलवाड़ जानते हैं। यह जान कर, वह जानते हैं कि :

1. गुण गुणों में वर्तते हैं।

2. जीवन में सम्पूर्ण कर्म गुणों से ही होते हैं।

3. जीवों का अपने कर्मों पर कोई वश नहीं है।

4. गुण ही गुणों को प्रभावित करते हैं।

5. गुण ही गुणों को गुणों से दूर करते हैं।

गुण जड़ होतें हैं और अज्ञानी गण नित्य गुणों से ही प्रभावित होते रहते हैं। ज्यों वे अपने गुणों को अपना कहते हैं, उसी विधि वे दूसरों को भी तनधारी मान कर उनके गुण उन्हीं पर आरोपित करते हैं। आत्मवान् जानता है कि गुण प्राकृतिक देन हैं और तन प्राकृतिक रचना है। वह यह भी जानता है कि प्रकृति अक्षर तत्व पर ही आश्रित है। इस सृष्टि में जो हो रहा है, वह उस अखण्ड तत्व की अखण्डता में हो रहा है।

आत्मवान् जब स्वरूप में बैठते हैं तो वे अखण्ड मौन होते हैं। वास्तव में वे तो नित्य अपने स्वरूप में ही स्थित होते हैं।

याद रहे व्यावहारिक स्तर पर वह अपने तन या दूसरों के स्थूल शरीरों में भेद दृष्टि नहीं रखते। उनके लिये अखिल तन गुण भण्डार ही हैं और तत्व रूप में एक समान ही हैं; चाहे गुण रूप से भेद पूर्ण हैं।

नन्हीं! आत्मा नित्य निर्विकार तथा निराकार है, फिर भी पूर्ण सृष्टि उसी का विराट रूप कहा जाता है। आत्मवान्, परम पुरुष पुरुषोत्तम के लिये सम्पूर्ण सृष्टि उसी का विराट रूप होता है, किन्तु यदि उन्हें व्यष्ट में देखें, तो उनके साधारण जीवन में इस अद्वैत तत्व की झलक मिलती है। इसी में तो उनकी विलक्षणता निहित होती है। भगवान यहाँ अर्जुन को आत्म स्वरूप का ज्ञान देते हुए, आत्म स्वरूप के विज्ञानमय रूप को समझा रहे हैं। मानो वह कह रहे हों कि यदि आत्मवान् बनना है, तो यह दृष्टिकोण अनिवार्य है और यह तब ही अपना सकोगे, यदि अपने सहज जीवन में इस दृष्टिकोण में नित्य रह कर व्यवहार करने का अभ्यास करो।

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