अध्याय १७
तदित्यनभिसंधाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङिक्षभिः।।२५।।
भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. ‘तत्’ ऐसा कह कर,
२. मोक्ष चाहने वाले पुरुषों द्वारा,
३. फल की चाहना का ध्यान न करते हुए,
४. नाना प्रकार के यज्ञ, तप, दान की क्रियायें की जाती हैं।
तत्त्व विस्तार :
‘तत्’ (विस्तार के लिए श्लोक १७/२३ देखिए) से ब्रह्म की ओर संकेत है। तत् जैसे कह आये हैं, ब्रह्म का नाम है, और ब्रह्म की ओर संकेत करता है। तत् का अर्थ है, सब वही है, सब उसी का है। जब जीव कर्म फल नहीं चाहता, तब वह वास्तव में कर्मफल भगवान पर छोड़ देता है।
तत् का रूप :
यानि,
1. सब उसी का जान कर वह भगवान के अर्थ कर्म करता है।
2. ब्रह्म का चाकर बन कर कर्म करता है।
3. सब काज कर्म और परिणाम उसी के हैं और उसी के लिये हैं, यह जान लेता है।
4. वह अपने आपको निमित्त मात्र जानता है और मानता है।
मेरी नन्हूं जान् :
‘तत्’ नित्य साक्षी के रूप में साथ रहे तो ही मुक्ति मिल सकती है।
कमला! ऐसे लोग,
– सब उसी का है,
– सब वही है,
– ये मानते हैं।
जीवन में इसका अभ्यास करते हुए वे भगवान का नाम लेते हैं। किसी भी कार्य को करने से पहले ‘सब उसी का है’, जानते हुए वे तत् कहा करते हैं।
क) जो लोग ‘मैं’ अर्थ छोड़ना चाहते हैं।
ख) जो लोग स्वार्थ, अहंकार, मिथ्यात्व, मोह सब छोड़ना चाहते हैं,
वे जीवन में सब कुछ ब्रह्म का जान कर करते हैं।
यानि, जो लोग असत् से मुक्त होना चाहते है, वे ‘तत्’ कह कर :
1. जीवन परम में अर्पित करते जाते हैं।
2. जीवन में परमेश्वर परायण काम करते जाते हैं।
3. जीवन भर परम की चाकरी करते हैं।
4. वे अपने तन को भी भगवान के हवाले करते जाते हैं।
5. वे अपने मन से संग छोड़ने के यत्न करते हैं।
वे मुक्ति चाहुक लोग, तन, मन, बुद्धि, को भगवान का जानकर जीवन में यज्ञ, तप, दान करते हैं।