Chapter 16 Shloka 24

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।२४।।

Scriptures alone are your substantiation

as to what is your duty and what

should not be done. Only those actions

ordained by the Scriptures should be performed.

Chapter 16 Shloka 24

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।२४।।

Bhagwan says, look Arjuna!

Scriptures alone are your substantiation as to what is your duty and what should not be done. Only those actions ordained by the Scriptures should be performed.

Little one,

1. This is the Lord’s command.

2. The Lord is enjoining us to obey Him.

3. The Lord is coaxing us thus.

4. He is explaining to us.

5. He is elucidating the Truth along with its proof.

6. He is explaining with total clarity of thought and word.

7. He is showing us what is true and what is not true.

Revealing both the demonic and divine wealth to us, He Himself is warning Arjuna, “Follow the code of conduct described in the Scriptures.”

In other words:

1. You must engage in all worthwhile actions.

2. The actions prescribed in the Scriptures constitute your duty.

3. Make the vision of the Scriptures your own and witness yourself through the eyes of the Scriptures.

4. Colour your point of view with the hues of the Scriptures.

5. Perform all actions that conform with the Scriptures.

6. The flow of your life must be in accordance with the Scriptures.

­­–  The Scriptures are another name for life itself.

­­–  The Gita is not mere knowledge – it is life.

The Bible, Guru Granth Sahib, Quran, Vedas and Puranas etc. are not mere theoretical knowledge – they are life itself. Let them enter and colour your life, and become the embodiment of their teaching.

This is what the Lord is specifying, this indeed is your duty.

The duty of man

If the Gita is the measuring scale for the actions of man, and if the Gita is the judge of man’s actions, then what is the duty of the individual?

To mould his life in accordance with the Scriptures is man’s sole duty. If his life does not measure up with the Scriptures, his life can be considered contrary to dharma. A life contrary to dharma is a life devoid of duty.

What is man’s duty as expounded in the Gita? What is its foundation? Try to understand what are the pre-requisites for fulfilling one’s duty as described in the Gita, what should be one’s basic perspective, attributes and intellect.

Try to gauge all this through what one has read so far. In order to do one’s duty one must follow each word of the Gita in practice. Let us once more review all that the Gita has said so far.

The Gita in essence

The Lord says:

1. Make every endeavour to become an Atmavaan.

2. Make every effort to unite with the Supreme.

3. Unison with the Lord will yield an attitude of equanimity.

4. Try to attain the state of a Sthit Pragya.

5. Perform actions imbued with the spirit of yagya or selfless offering.

6. Act, but renounce the fruits of action.

7. Relinquish attachment and become devoid of desire.

8. Witness all with impartiality.

9. Renounce anger, greed and hatred.

10. Renounce all resolves and resolutions.

11. Retain equanimity in the face of acclaim and insult, happiness and sorrow.

12. Become impartial towards both friend and foe and learn how to perform selfless deeds.

13. The devotee of wisdom is the highest category of mankind – you too, should become like such a gyani bhakta.

14. Learn how to live eternally in the refuge of the Lord.

15. Make the Lord your witness in all that you do and remember Him always.

16. Make that Ancient Supreme State your life’s goal.

17. That One can be attained through exclusive devotion. Therefore become such a single-minded devotee of the Supreme.

18. Make every endeavour to fix your mind only on the Lord.

19. Practice the divine qualities and learn to live for the Lord.

20. Make endeavours to be devoid of enmity towards all beings.

21. Be devoid of ‘I’, ‘mine’, ego, and imbibe the attitude of forgiveness.

22. Be ever content.

23. The Lord describes the divine qualities, time and again; practice their inculcation.

24. Do not try to establish your rights over the other – give freedom to all.

25. Do not try to break the concepts and convictions of another.

26. Engage yourself in the welfare of all beings and know that all that happens, happens due to the interaction of qualities.

27. Do not allow your intellect to be affected by the qualities of others or even your own qualities.

28. Renounce moha and strengthen your faith in Truth.

29. Attain the nature of the Supreme One and practice that attitude in life.

Little one, seeker of the essence of duty!

a) This is the duty of every man.

b) This is the measure of man.

c) This is the Lord’s essence and His manifest form.

d) This is the law of Brahm that must be translated into life.

e) It is the only goal worthy of attainment in life – and only this knowledge is worth knowing.

f) This verily is Adhyatam.

All else is ignorance and devoid of the essence of duty. One cannot even conceive one’s duty without these essential pre-requisites. Duty is always for the other. The Lord’s life is duty incarnated. Duty means service and love. Indeed, all the Scriptures primarily focus on one’s duty in life.

अध्याय १६

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।

ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि।।२४।।

भगवान कहते हैं, ‘हे अर्जुन! तू देख ले।

शब्दार्थ

१. इसलिये, तेरे इस कर्तव्य और अकर्तव्य की व्याख्या में,

२. ‘शास्त्र ही प्रमाण हैं’, ऐसा जान कर,

३. शास्त्र में विधान किए हुए कर्म ही करने योग्य हैं।’

तत्त्व विस्तार :

नन्हीं देख! भगवान :

1. आदेश दे रहे हैं।

2. आज्ञा दे रहे हैं।

3. मना कर कहते हैं।

4. समझा कर कहते हैं।

5. प्रमाण सहित कहते हैं।

6. पूर्ण विचार और पूर्ण वाक् स्पष्टता से कहते हैं।

7. असत् सत् दर्शा कर कहते हैं।

आसुरी और दैवी सम्पदा बता कर भगवान स्वयं ही कहते हैं, “अर्जुन! शास्त्र कथित तथा शास्त्र वर्णित जीवन विधान का अनुसरण कर!”

यानि,

क) जीवन में करने योग्य कर्म कर।

ख) शास्त्र कथित कर्म ही तेरा कर्तव्य है।

ग) शास्त्र को ही अपनी दृष्टि बना और शास्त्र राही अपने आपको देख।

घ) शास्त्र से ही अपना दृष्टिकोण रंग ले।

ङ) शास्त्र से तुलते हुए कर्म कर।

च) तुम्हारा जीवन प्रवाह शास्त्र निरूपित प्रवाह होना चाहिये।

– शास्त्र जीवन का ही नाम है।

– गीता ज्ञान नहीं, जीवन है।

बाईबल, गुरु ग्रन्थ साहिब, कुरान, और वेद पुराण इत्यादि ज्ञान नहीं, जीवन हैं।

भाई! इन्हें जीवन में ले आओ, इन्हीं की प्रतिमा बन जाओ!

भगवान यही कह रहे हैं यहाँ, यही तुम्हारा कर्तव्य है।

जीव का कर्तव्य :

जीव के कर्म की तुला गर गीता है, जीव के कर्मों का न्याय करने वाली गर गीता है, तो जीव का कर्तव्य क्या होगा?

शास्त्र अनुकूल जीवन ही कर्तव्य है। गर जीवन शास्त्र अनुकूल नहीं तो जीवन धर्म विरुद्ध है। धर्म विरुद्ध जीवन ही कर्तव्य विहीन जीवन है।

गीता कथित कर्तव्य क्या होगा, उसका मूल क्या होगा, इसे समझ लेना चाहिये। यह समझने के प्रयत्न करो कि गीता कथित कर्तव्य करने के लिये मौलिक दृष्टि, गुण और बुद्धि कैसी होनी चाहिये?

यह सब, जो आप अभी तक पढ़ कर आये हैं, उसे समझ लें! जीवन में व्यावहारिक स्तर पर कर्तव्य करने के लिये भी गीता के आदेश का अक्षरश: अनुसरण करना अनिवार्य है। गीता ने आपको अभी तक क्या कहा है, उसे फिर समझ लो!

गीता सारांश :

भगवान कहते हैं :

1. आत्मवान बनने के प्रयत्न करो।

2. योग युक्त होने के प्रयत्न करो।

3. योग राही परम से समत्व पायेगा।

4. स्थित प्रज्ञ बनने के प्रयत्न करो।

5. यज्ञमय कर्म करो।

6. कर्म करो पर फल की चाहना छोड़ दो।

7. संग छोड़ दो और कामना रहित हो जाओ।

8. समदर्शी हो जाओ।

9. क्रोध, लोभ, द्वेष को छोड़ दो।

10. सर्वसंकल्प परित्यागी हो जाओ।

11. मान, अपमान, सुख, दु:ख में सम रहना सीख लो।

12. मित्र वैरी के प्रति समभाव वाले हो जाओ और निष्काम कर्म करना सीख लो।

13. ज्ञानी भक्त सर्वोत्तम जीव है, तुम भी वही बनो।

14. निरन्तर भगवान की शरण में रहना सीख लो।

15. निरन्तर भगवान के साक्षित्व में रहना और निरन्तर उनका स्मरण करना सीख लो।

16. सनातन परम पद को लक्ष्य बना लो।

17. अनन्य भक्ति द्वारा उसे पा सकते हैं, इस कारण अनन्य भक्त बनो।

18. केवल भगवान में चित्त टिकाने का प्रयत्न करो।

19. दैवी गुणों का अभ्यास करो और भगवान के लिये जीना सीखो।

20. सर्वभूतों के प्रति निर्वैर बनने के प्रयत्न करो।

21. निर्मम, निरहंकार और क्षमावान बनने के प्रयत्न करो।

22. नित्य संतुष्ट हो जाओ।

23. पुन: पुन: दैवी गुण की कहते हैं, इन्हें अपने में लाने का अभ्यास करो।

24. औरों पर अधिकार न जमाओ, उन्हें स्वतंत्र रहने दो।

25. औरों की मान्यता भंग न करो।

26. सर्वभूत हितकर बनो और यह जान लो कि गुण गुणों में वर्तते हैं।

27. अपनी बुद्धि को दूसरों के गुणों से या अपने गुणों से प्रभावित न होने दो।

28. मोह को छोड़ दो और सत् में श्रद्धा रखो।

29. भगवान के समान, परम धर्म वाले बनो।

कर्तव्य विवेक याचिका नन्हूं!

क) यही हर जीव का कर्तव्य है।

ख) यही हर जीव की तुला है।

ग) यही भगवान का स्वरूप और रूप है।

घ) यही ब्रह्म का विधान है और इसे ही जीवन में लाना चाहिये।

ङ) यही जीवन में प्राप्तव्य है और यही बनने की विधि ज्ञातव्य है।

च) यही अध्यात्म है।

अन्य सब अज्ञान है और कर्तव्य विहीन है। बिन ये गुण पाये कर्तव्य हो ही नहीं सकता। कर्तव्य दूसरे के लिये होता है। कर्तव्य भगवान का जीवन है। कर्तव्य ही सेवा और प्यार है। सब शास्त्र हमें जीवन कर्तव्य ही बताते हैं।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुन संवादे दैवासुरसंपद्विभागयोगोनाम

षोडशोऽध्याय:।।१६।।

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