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Chapter 12 Shloka 19
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ।।१९।।
He who retains his equipoise in both censure and praise,
who remains ever silent and satiated in whatever
he receives, who is devoid of attachment to
hearth and home and who is of a stable intellect
and replete with devotion, that one is dear to Me.
Chapter 12 Shloka 19
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ।।१९।।
The Lord says, “O Arjuna, these devotees of stable intellect, who remain equipoised in every situation, are indeed dear to Me.”
He who retains his equipoise in both censure and praise, who remains ever silent and satiated in whatever he receives, who is devoid of attachment to hearth and home and who is of a stable intellect and replete with devotion, that one is dear to Me.
Ninda (निन्दा) – Censure
Little one, a true devotee of the Lord remains unperturbed even if:
a) he is criticised by others;
b) he is blamed by others;
c) he is rebuked and rejected by others;
d) he is insulted and defamed by others;
e) he is publicly accused.
Stuti (स्तुति) – Praise
Stuti connotes speaking well of, glorifying, singing praises of, flattering. The Lord says that he who is indifferent towards both censure and praise and is unaffected by both, is indeed dear to Him.
Mauni (मौनी) – Silent
Those devotees are dear to the Lord, who abide in quietude.
1. The Mauni is one who remains ever silent.
2. His mind is ever peaceful.
3. His mental tendencies and confusions have ceased.
4. He is eternally silent towards himself.
a) Those who are thus silent say nothing about themselves since they are indifferent to their personal beings.
b) They are silent where the fulfilment of their likes and dislikes are concerned.
c) They are silent towards honour and dishonour.
d) They are silent where their joys and sorrows are concerned.
e) They are incapable of thinking about their personal establishment.
Since they are completely silent towards their own selves, they are known as ‘Mauni’. However, they talk and interact with others just like ordinary people.
Santushto Yen Ken Chit (संतुष्टोयेनकेनचित्)
Such a one is ever satiated with whatever he receives unasked through the Lord’s grace. Little one, when does the Lord’s devotee ever think of his own body? For him the entire creation is Vaasudeva Himself and he serves all with a selfless attitude. If he receives anything from anywhere, he is satisfied; even if he does not receive anything, he is still happy. He shares all the gifts of destiny with others and remains ever contented with the joys and sorrows meted out to him by fate.
Aniket (अनिकेत)
1. Aniket is the epithet for one who does not have a home of his own.
2. One who makes no claims on anybody is aniket.
3. Little one, in actual fact, one who does not reside in his body is aniket. The Lord Himself resides in the body of such a devotee.
4. That devotee is free of any sense of ‘me’ and ‘mine’; therefore he is aniket.
5. One who has surrendered his all to the Lord is truly aniket.
6. Little one, even though that devotee possesses his own home, family, body, mind and intellect unit, he is aniket because of his innate detachment.
7. Such a one seeks no support in the outside world; thus he is aniket.
Sthirmati (स्थिरमति)
The Lord lists the attribute of Sthirmati as a mark of the devotee who is dear to Him.
Little one:
1. One whose intellect remains unaffected by duality is sthirmati.
2. One whose intellect remains unclouded by his likes and dislikes is sthirmati.
3. One whose intellect remains uninfluenced by his own desires is sthirmati.
4. One whose intellect is not affected by his own concepts and principles is sthirmati.
5. One whose intellect is not influenced by the transient world of sense objects is sthirmati.
6. One whose intellect is never employed for purposes of self-establishment is sthirmati.
Such a one’s intellect is ever established in the Atma and no sense object of this material world can perturb it.
Bhaktimaan (भक्तिमान्)
1. One imbued with devotion;
2. One who ever utilises divine attributes in his life;
3. One who has unshakeable faith in the Lord;.
4. One who does not renounce divine qualities even at the risk of his own ruin;
5. One whose only support and refuge in the world is the Lord Himself;
6. One whose life is itself a glorification of the divine qualities;
7. One who is himself a proof of the efficacy of the divine qualities;
8. One who does not relinquish his integrity despite the opposition of the whole world.
The Lord says that the one who has all these qualities which He has enumerated, that aspirant, imbued with devotion, is indeed dear to Him.
Little one, the Lord is explaining the attributes of the perfect devotee as well as of the practicant on the path of devotion. The practice of abstaining from raag and dvesh – excessive attachment and hatred, will free a person of this duality. The practice of desirelessness is the only way to become desireless. The practice of equanimity teaches the practicant to remain equipoised in situations of duality.
The true devotee of the Lord does not even remember himself. He knows all creatures of this world to be Vaasudeva Himself and serves them as such. Such a devotee is dear to the Lord.
अध्याय १२
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेत: स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नर: ।।१९।।
अब भगवान कहने लगे, अर्जुन! मुझे वह स्थिर बुद्धि वाले लोग पसन्द हैं, जो हर परिस्थिति में सम रहते हैं। यानि जो :
शब्दार्थ :
१. निन्दा तथा स्तुति में तुल्य रहता है,
२. जो निरन्तर मौन रहता है,
३. जो मिल जाये, उसमें ही सन्तुष्ट रहता है,
४. जो अनिकेत, स्थिरमति तथा भक्तिमान् हैं,
५. वह नर मुझे प्रिय है।
तत्त्व विस्तार :
निन्दा :
नन्हूं!
1. भगवान के भक्त की कोई निन्दा करे,
2. भगवान के भक्त को कोई दोष लगाये,
3. भगवान के भक्त को कोई धिक्कारता रहे,
4. भगवान के भक्त को कोई कलंक लगाये,
5. भगवान के भक्त को कोई दोष लगा कर लोगों को सुनाता रहे,
तब भी उन्हें गिला नहीं होता।
स्तुति :
स्तुति का अर्थ है :
क) प्रशंसा करना,
ख) महिमा गान करना,
ग) गुण गान करना,
घ) चापलूसी करना,
ङ) ख़ुशामद करना।
भगवान कहते हैं कि जो निन्दा और स्तुति के प्रति उदासीन रहते हैं और इनसे प्रभावित नहीं होते, वे उन्हें प्रिय हैं।
मौनी :
भगवान को वे लोग पसन्द हैं, जो मौनी होते हैं।
मौनी उसे कहते हैं :
1. जो निरन्तर मौन रहता है।
2. जिसका मन नितान्त शान्त रहे।
3. जिसके वृत्ति झमेले शान्त हो जायें।
4. जो अपने प्रति निरन्तर मौन रहे।
क) मौनी गण अपने तन के प्रति उदासीन होने के कारण अपने बारे में कभी कुछ नहीं कहते।
ख) मौनी गण अपनी रुचि अरुचि के प्रति भी मौन रहते हैं।
ग) मौनी गण अपने मान अपमान के प्रति भी मौन रहते हैं।
घ) मौनी गण अपने सुख दु:ख के प्रति भी मौन रहते हैं।
ङ) मौनी गण अपनी स्थापना के बारे में सोच भी नहीं सकते।
अपने प्रति नितान्त मौन होने के कारण वे मौनी होते हैं। वैसे तो वे साधारण जीवों की तरह बातें करते हैं।
संतुष्टो येन केनचित् :
जो भी दैव योग से मिल जाए, उसमें वे संतुष्ट रहते हैं। जो भी अनायास मिल जाये, उसमें संतुष्ट रहते हैं। नन्हूं! भगवान के भक्त अपने शरीर को याद ही कब करते हैं? वे तो सम्पूर्ण संसार को वासुदेव मानकर निष्काम भाव से उसकी सेवा करते हैं। उन्हें कहीं से कुछ मिल जाये तो भी ठीक, न मिले तो भी मुदित रहते हैं। प्रारब्ध वश जो कुछ मिल जाये, वे तो उसे भी बांट कर खाते हैं। प्रारब्ध वश जो उन्हें दु:ख सुख भी मिलते हैं, वे उनमें ही संतुष्ट रहते हैं।
अनिकेत :
1. जिसका अपना कोई घर न हो उसे अनिकेत कहते हैं।
2. जिसका अपना किसी पर अधिकार न हो उसे अनिकेत कहते हैं।
3. नन्हीं! जो अपने तन में नहीं रहता, वास्तव में वही अनिकेत है। उस भक्त के तन में उसकी जगह भगवान रहते हैं।
4. उस भक्त का कहीं भी ममत्व भाव नहीं होता, इस कारण वह अनिकेत है।
5. जो अपना सर्वस्व भगवान पर अर्पण कर चुका है, वह अनिकेत ही होता है।
6. नन्हीं! ऐसे भक्त का घर, कुल तथा तन, मन, इत्यादि होते हुए भी वह अनिकेत ही होता है।
7. उसका जहान में कोई आश्रय नहीं होता, इस कारण भी वह अनिकेत ही होता है।
स्थिरमति :
भगवान कहते हैं स्थिरमति उन्हें पसन्द हैं।
नन्हीं! स्थिरमति वे होते हैं,
1. जिनकी बुद्धि द्वन्द्वों से आवृत नहीं होती।
2. जिनकी बुद्धि उनकी अपनी रुचि अरुचि से आवृत नहीं होती।
3. जिनकी बुद्धि अपनी कामना से आवृत नहीं होती।
4. जिनकी बुद्धि अपनी मान्यताओं से आवृत नहीं होती।
5. जिनकी बुद्धि अपने सिद्धान्तों से आवृत नहीं होती।
6. जिनकी बुद्धि स्पर्श मात्र जहान् से आवृत नहीं होती।
7. जिनकी बुद्धि अपनी स्थापना के लिए कुछ नहीं करती।
स्थिरमति वालों की बुद्धि नित्य आत्म में स्थित होती है और उनको लौकिक जहान का कोई विषय भी विचलित नहीं कर सकता।
भक्तिमान्
क) भक्तियुक्त को भक्तिमान् कहते हैं।
ख) जो निरन्तर अपने जीवन में दैवी गुणों का आश्रय लेता है, वह भक्तिमान् कहलाता है।
ग) जिसे भगवान में अगाध श्रद्धा हो, उसे भक्तिमान् कहते हैं।
घ) जो स्वयं तबाह होकर भी भागवद् गुण का त्याग नहीं करता, उसे भक्तिमान् कहते हैं।
ङ) जिसका जीवन में आसरा केवल भगवान होते हैं, उसे भक्तिमान् कहते हैं।
च) जो भगवद् गुणों की महिमा स्वयं होते हैं, वे भक्तिमान् होते हैं।
छ) जो भगवद् गुणों का प्रमाण स्वयं होते हैं, वे भक्तिमान् होते हैं।
ज) जो सम्पूर्ण संसार का विरोध पाते हुए भी अपना सतीत्व नहीं छोड़ते, वे भक्तिमान् होते हैं।
भगवान ने कहा कि जिनके पास वे सम्पूर्ण गुण हैं, जो भगवान ने कहे हैं, वे भक्तिमान् पुरुष उन्हें प्रिय हैं।
नन्हीं! भगवान यहाँ सिद्ध भक्त और भक्ति पथ पथिक, दोनों की ही बात समझा रहे हैं। राग द्वेष रहितता का अभ्यास ही राग द्वेष को छोड़ना है। कांक्षा रहितता का अभ्यास ही कांक्षा को छोड़ना है। समता का अभ्यास ही द्वन्द्व पूर्ण स्थितियों में सम रहना है। फिर, जो भगवान के सच्चे भक्त होते हैं, उन्हें तो अपनी याद ही नहीं रहती। संसार मात्र के प्राणियों को वे वासुदेव ही जान कर उनकी सेवा करते हैं। भगवान को ऐसे भक्त प्रिय लगते हैं।