Chapter 10 Shloka 29

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितॄणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम्।।२९।।

Amongst cobras, I am Ananta;

amongst the denizens of the deep, I am Varun;

I am Aryama amongst ancestors

and I am Yam amongst the controllers.

Chapter 10 Shloka 29

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितॄणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम्।।२९।।

The Lord now says:

Amongst cobras, I am Ananta; amongst the denizens of the deep, I am Varun; I am Aryama amongst ancestors and I am Yam amongst the controllers.

A. “I am Sheshnaag – the greatest of the naagas or cobras.”

Cobras are different from other snakes. Cobras prefer solitude and do not bother with others. A cobra is said to possess several heads. It abides in complete silence. It is said that Narayana Himself reclines upon a cobra – devoid of all thoughts and concerns.

B.  “Amongst the denizens of the deep I am the King of the gods of the sea.”

All living beings, including men, animals and birds cannot survive without water. Trees, shrubs, flowers and fruit also depend on water for life.

The lord says, “I am Varun, the water god, who accords life to all.”

C. “I am Aryama amongst all ancestors.”

Aryama is the presiding deity of the deceased. Aryama is symbolic of the blessings of the ancestors. Such blessings are extremely precious. The Lord says that He Himself is that divine blessing.

D. “I am Yam amongst the self controlled.”

Yam is that power which keeps all beings under control. The Lord says that He is the power of vigilance amongst those who practice self restraint. It is He who keeps all tendencies under control. He is the code of conduct which aids self control. Yam, the chastiser of those who seek to practice self restraint, is the Lord Himself.

Little one, all that you have to understand from this is, that all that is, is the Lord Himself. Let all that happens in the world, continue to happen – what matters is that you must shed all egoistic pride; disassociate yourself from the body and cease attachment.

Serve all, knowing the Lord to be the Self of all. Through this the attitude of selflessness will grow stronger and mature in you.

अध्याय १०

अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।

पितॄणामर्यमा चास्मि यम: संयमतामहम्।।२९।।

अब भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. नागों में मैं अनन्त हूँ,

२. जलचरों में मैं वरुण हूँ,

३. और पितरों में मैं अर्यमा हूँ,

४. संयम करने वालों में मैं यम हूँ।

तत्व विस्तार :

क) नागों में नागश्रेष्ठ “शेषनाग मैं हूँ।”

नाग सर्प से भिन्न होते हैं। नाग एकान्त वासी होते हैं और किसी से कुछ नहीं कहते। उनके अनेकों सिर होते हैं, ऐसा कहते हैं।

यह महा मौन होते हैं। कहते हैं कि शेषनाग पर नारायण निश्चिन्त शयन करते हैं।

नाग ‘खूंटी’ को भी कहते हैं, मानो उस नाग पर पूर्ण ब्रह्माण्ड लटक रहा हो।

ख) “जलचरों में मैं जल के देवताओं का राजा ‘वरुण’ हूँ।”

जल बिन जीव और पशु पक्षी भी प्राण छोड़ देते हैं। जल के बिना वृक्ष, कन्द, फूल भी नहीं रह सकते।

भगवान कहते हैं, ‘इन सबके प्राण रूप जल देवता वरुण मैं ही हूँ।’

ग) “पितरों में मैं अर्यमा हूँ, जो पितरों का देवता माना जाता है।”

पितरों के आशीर्वाद का यह प्रतीक है। पितरों का आशीर्वाद बहुत श्रेष्ठ है। भगवान कहते हैं, ‘वह पावन आशीर्वाद मैं ही हूँ।’

घ) “संयम करने वालों में मैं ‘यम’ हूँ।”

अर्थात् जो सबको नियम में रखता है, वह यम मैं ही हूँ। भगवान कहते हैं कि संयम करने वालों में वृत्ति निग्रह की शक्ति वह आप हैं, संयम करने वालों में वृत्तियों को वश में करने वाला ‘यम’ वह आप हैं। अपने आपको काबू में रखने वाले सम्पूर्ण नियम वह भगवान आप हैं। संयम करने वालों का दण्ड रूप यम भी भगवान आप हैं।

नन्हीं! बस यही समझ ले कि जो है, सब भगवान का ही है। जग में जो होता है, होने दे, किन्तु अपना गुमान छोड़ दे, तन से संग छोड़ दे, अपनी आसक्ति छोड़ दे।

सबको भगवान का आत्मरूप जान कर सबकी सेवा करो, इसी विधि इस निष्काम भाव में परिपक्वता पा लोगी।

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