Chapter 10 Shloka 8

अहं सर्वस्व प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता:।।८।।

I am the cause of all creation and

everything in the world is propelled by Me;

knowing this, men of wisdom,

full of devotion, constantly worship Me.

Chapter 10 Shloka 8

अहं सर्वस्व प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता:।।८।।

The Lord now speaks of those who are irrevocably united with Him:

I am the cause of all creation and everything in the world is propelled by Me; knowing this, men of wisdom, full of devotion, constantly worship Me.

The Lord now says, that the one who knows the following:

1. The Lord Himself is the cause of all creation;

2. Those factors, whereby this entire universe is created, are all divine powers of the Lord;

3. The Lord is the Sustainer of the universe;

4. It is He who nourishes the world;

5. He is its controller;

6. He is the cause of creation, sustenance and destruction as well;

7. The creation and stability of the world are because of that Supreme One;

that man of wisdom knows that all movement in this creation is also rooted in Him.

a) All endeavours of the body and the sense organs are inspired by Him.

b) The attributes of all living beings have been implanted by the threefold energy of that Supreme Lord.

c) All interaction of the attributes also originates from Him alone.

d) Attraction and repulsion of the attributes is also instigated by Him.

e) The varied qualities of the mind are a gift from the Lord.

f) The union or separation of qualities and their effect on each other are caused by Him.

Little one, the wise man perceives the Lord’s hand in the interplay of all qualities and also knows of the Lord’s indivisibility. Thereafter, those men of wisdom worship the Lord exclusively and relentlessly.

The life of one who worships the Lord with exclusive devotion

Little one, he who knows the Supreme and the nature of that Supreme One,

a) has his head ever bowed in humble acknowledgement;

b) how can he then ever take pride in doership?

c) he can never claim the body as his own;

d) the idea of individualism is erased from his mind;

e) which intellect will he take pride in?

f) his ego will hesitate to revel in its pride.

The mind of such a devotee will spontaneously immerse itself in the Lord. His very life will become a garland of supreme worship.

1. He will ever utilise the attributes of the Supreme in life.

2. He will remain ever satiated in the Atma and gift his body, mind and intellect to the world.

3. He will be absorbed in the Atma and the world will receive in the form of his body, a manifestation of the energy of the Supreme – a vibhuti.

अध्याय १०

अहं सर्वस्व प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते।

इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विता:।।८।।

जो लोग भगवान में अचल योग युक्त हुए हैं, भगवान अब उनके विषय में कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. मैं ही सबकी उत्पत्ति का कारण हूँ,

२. और मुझसे ही सम्पूर्ण जग प्रवृत्त होता है,

३. ऐसा जान कर, बुद्धिमान् लोग

४. भाव युक्त होकर मुझे भजते हैं।

तत्व विस्तार :

भगवान अब कहते हैं, जिसने तत्व से यह जान लिया है कि :

1. पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति का कारण भगवान हैं,

2. जिन तत्वों के राही सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति होती है, वह भी भगवान की विभूतियाँ हैं,

3. संसार के ईषण कर्ता भी भगवान हैं,

4. संसार के पोषण कर्ता भी भगवान हैं,

5. संसार के नियमन कर्ता भी भगवान हैं,

6. संसार की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय के कारण भी भगवान हैं,

7. संसार की उत्पत्ति और नित्य स्थिति भी भगवान में ही है,

उन्होंने यह जान लिया कि सम्पूर्ण संसार में प्रवृत्ति भी भगवान से ही होती है।

यानि :

क) सम्पूर्ण तन और इन्द्रियों की चेष्टाएँ भगवान से ही प्रेरित होती हैं।

ख) सम्पूर्ण जीवों के गुण भगवान की त्रिगुणात्मिका शक्ति ने ही जीवों में भरे हैं।

ग) गुणों का गुणों में वर्तना भी भगवान की ही अध्यक्षता में होता है।

घ) गुणों का प्रतिकर्षण या आकर्षण भी भगवान से ही प्रेरित होता है।

ङ) मन के विभिन्न गुण भगवान की ही देन हैं।

च) गुण योग या वियोग तथा गुण प्रभाव या अप्रभाव भी भगवान से ही होता है।

नन्हीं! वे परमात्मा के इस गुण खिलवाड़ को तत्व से जान लेते हैं और परमात्मा की अखण्डता का राज़ भी जान लेते हैं, तत्पश्चात् वे बुद्धिमान् लोग अनन्य भाव से भगवान का भजन करते हैं।

अनन्य भक्त का जीवन :

नन्हीं! जिसने परम को और परम के स्वभाव को जान लिया,

1. उसका सिर तो झुक ही जाएगा।

2. फिर वह कर्तापन का अभिमान कैसे कर सकेगा?

3. फिर वह तन को अपना नहीं कह सकेगा।

4. वह तो मानो जीवत्व भाव को भूल ही जाएगा।

5. वह किस बुद्धि पर गुमान कर सकेगा?

6. उसके अहंकार को भी मानो दम्भ करते हुए लाज आएगी।

ऐसे भक्त का मन परम में स्वत: खोने लगेगा। उसका जीवन ही परम भजन हो जायेगा।

क) वह तो निरन्तर परम गुण में ही वर्तेगा और उन्हें ही जीवन में बहाएगा।

ख) वह तो निरन्तर आत्मा में ही संतुष्ट रह कर मानो अपना तन, मन, बुद्धि संसार को दान में दे देगा।

ग) वह आत्मा में विलीन हो जायेगा और जग को मानो एक परम विभूति का रूप तन मिल जायेगा।

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