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Chapter 13 Shloka 18
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासत:।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।१८।।
Thus kshetra, knowledge and the object
worthy of knowledge have been concisely discussed;
knowing this Truth, My devotee, having become
worthy of My perspective, attains Me.
Chapter 13 Shloka 18
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासत:।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।१८।।
The Lord now says that if one is desirous of knowing the Atma, it is essential to know in essence the kshetra, the knowledge and the goal of knowledge.
Thus kshetra, knowledge and the object worthy of knowledge have been concisely discussed; knowing this Truth, My devotee, having become worthy of My perspective, attains Me.
Bhagwan says, he who knows that:
a) this body is the kshetra;
b) the flow of Adhyatam through this body is true knowledge;
knows that as a result of such a flow, one can know That Supreme Essence – the divine goal, and attains the Supreme Self.
The Lord says:
1. A true devotee of Mine would, from this very moment onwards, endeavour to make his life a proof of the knowledge of Adhyatam and would thus attain Me.
2. If he is ready to surrender all at My feet, he will verily attain Me.
3. Imbibe those very qualities that you appreciate in Me; let them flow through your body.
4. Then, whomsoever you meet, will experience My qualities in you.
5. My very name is love.
6. My very essence is light.
7. My name is bliss.
8. My name is satiation.
9. My name is the nectar of immortality.
10. My name is compassion.
11. My name is consciousness.
12. My name is forgiveness.
If all these qualities flow through you, it will be My name that will flow through you. If not, you can repeat My name a million times – and you will not have said it even once.
When your life resounds with My name,
When the qualities which bespeak of Me flow through you,
Then your name and Mine will be one –
Your name will be that of the Lord.
Little one, understand the meaning of the phrase, “Having become worthy of My state”.
It is said here that having become worthy of the Lord’s elevated internal attitude, His bhav, such a one attains That Essence. The essence of the Lord is the Atma. Thus the aspirant becomes an Atmavaan. When such a devotee of the Lord truly realises ‘the knower, knowledge and the known’, then the triad which fetters the individual is shattered. When the seer, sight and the seen are understood by the individual, and that aspirant, knowing the truth about Prakriti, gains knowledge of the Atma, then he realises Prakriti to be gross and inanimate. Thereafter, he is worthy of mergence in the Atma because he relinquishes the body idea created by Prakriti. That devotee of wisdom is worthy of uniting with the Lord Himself.
Little one,
a) the object of all knowledge is the Atma;
b) knowledge is that which constitutes the sap of one’s life;
c) the kshetra is that which relates to the body and the world.
When the qualities of knowledge, as elucidated by the Lord, form the gist of one’s life and one’s way of living, all that will remain will be the kshetra devoid of ‘I’; the ‘I’ will be lost in the Atma. In fact, only the Atma and the divine kshetra, rid of the impurity of ‘I’, will remain.
From the point of view of the Atma, nothing exists apart from It. So it could in fact be said that all that remains is indeed the Atma alone.
Little one, the knower, knowledge and the known form a triad. When knowledge absorbs both the body and the ‘I’ into the kshetra, then neither knowledge, nor the knower, nor the known remain. It is then said that the triad is dissolved. As the dream witness, the dream tendency and the dream itself are three separate entities, yet when one awakens from the dream, all three disappear; so also, until the ‘I’ remains the spiritual seeker, the practice of spirituality and the goal of spirituality all persist. When the ‘I’ is annihilated, neither the aspirant, nor the practice of spiritual living, nor its goal remain – they all merge as one.
अध्याय १३
इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासत:।
मद्भक्त एतद्विज्ञाय मद्भावायोपपद्यते।।१८।।
भगवान कहते हैं, क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय को तत्व से जानो तो आत्मा को जान सकते हो।
शब्दार्थ :
१. इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय संक्षेप से कहा गया है,
२. मेरा भक्त इस को जान कर,
३. मेरे भाव के योग्य होकर,
४. मुझे (मेरे स्वरूप को) पाता है।
तत्त्व विस्तार :
भगवान कहते हैं कि देख! जो यह जान ले कि,
क) यह तन ही क्षेत्र है,
ख) इस तन राही अध्यात्म रूप गुण बहाव ही ज्ञान है;
इसके परिणाम स्वरूप वह परम स्वरूप ज्ञेय को जान लेता है और परम स्वरूप को पा लेता है।
भगवान कहते हैं :
1. गर कोई मेरा सच्चा भक्त हुआ तो इस पल, अभी से इस शब्द ज्ञान को अपने जीवन में प्रमाणित करके, मुझे ही पा लेगा।
2. गर वह सच ही मुझ पर सब कुछ समर्पित करने को तैयार है तो जीवन में मुझे पा ही लेगा।
3. जो गुण आपको मुझमें भाते हैं, वे गुण अपने में ले आओ।
4. जो गुण आपको मुझमें भाते हैं, उन गुणों को अपने तन राही बहने दो।
5. जो आपको देखे, आपको मिले, वह स्वत: ही मेरे गुणों का अनुभव कर पायेगा।
6. भाई! मेरा नाम ही प्रेम है,
7. मेरा नाम ही प्रकाश है,
8. मेरा नाम ही आनन्द है,
9. मेरा नाम ही संतोष है,
10. मेरा नाम ही अमृत है,
11. मेरा नाम ही करुणा है,
12. मेरा नाम ही चेतना है,
13. मेरा नाम ही क्षमा है।
गर तुझमें से ये गुण बह गये, तो मेरा नाम बह जायेगा; वरना, तू लाख मेरा नाम ले, मेरा नाम तू नहीं ले पायेगा।
जीवन ही नाम बस मेरा है, यह गुण प्रमाण है नाम का।
फिर तेरा नाम ही मेरा है, तेरा नाम ही है भगवान का ।।
नन्हूं! ‘भगवान के भाव के योग्य होकर’ का अर्थ समझ!
यहाँ कहते हैं, ‘भगवान के स्वरूप के योग्य होकर वह भगवान के स्वरूप को पाता है।’ भगवान का स्वरूप तो आत्मा है, इस नाते वह आत्मवान् बन जाता है। जब भगवान का भक्त, ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय को जान लेगा, तब इस त्रिपुटी का भंजन हो जायेगा। जब दृष्टा, दृष्टि और दर्शन को जीव समझ लेता है, यानि प्रकृति को जान लेता है और उसे आत्मा का भी ज्ञान हो जाता है, तब वह प्रकृति को जड़ मान लेता है। तत्पश्चात्, वह आत्मा में स्थित होने के योग्य हो जाता है क्योंकि वह प्रकृति रचित तनत्व भाव को त्याग देता है। वह ज्ञानी भक्त भगवान के योग्य है और भगवान में समा जाता है।
नन्हीं!
ज्ञेय – आत्मा
ज्ञान – जीवन सारांश
क्षेत्र – तन तथा संसार।
जब जीवन सारांश और जीवन प्रणाली में जो भगवान ने ज्ञान के गुण कहे हैं, वह मूर्तिमान हो जायें तो बाकी ‘मैं’ रहित क्षेत्र रह जायेगा और ‘मैं’ आत्मा में खो जायेगा। इस नाते, आत्मा और विभूति मात्र क्षेत्र रह जायेगा।
आत्मा के दृष्टिकोण से, आत्मा के सिवा कुछ है ही नहीं। तो क्यों न कहें, तब केवल आत्मा रह जायेगा।
नन्हूं! ज्ञाता, ज्ञान तथा ज्ञेय तीन होते हैं। ज्ञान जब तन को और ‘मैं’ को क्षेत्र में एक रूप कर देता है, तो न कोई ज्ञाता रहता है, न कोई ज्ञान और न ही कोई ज्ञेय होता है। तब कहते हैं कि ‘त्रिपुटी का भंजन’ हो जाता है। ज्यों स्वप्न दृष्टा, स्वप्नाकार वृत्ति तथा स्वप्न तीन होते हैं, जब स्वप्न से जाग जाओ, तब तीनों ख़त्म हो जाते हैं। वैसे ही जब तक ‘मैं’ है, साधक भी है, साधना भी है और साध्य भी है। जब ‘मैं’ मिट गई, तो न साधक रहा, न साधना रही और न साध्य रहा, सब एक ही हो गये।