अध्याय १५
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्।।१२।।
अब भगवान के तेज की महिमा कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. जो तेज सूर्य में स्थित हुआ,
२. सम्पूर्ण सृष्टि को प्रकाशित करता है,
३. तथा जो (तेज) चन्द्रमा में (स्थित है)
४. और जो तेज अग्नि में है,
५. वह तेज तू मेरा समझ।
तत्त्व विस्तार :
नन्हूं! अब भगवान अपने तेज के विषय में कहते हैं। याद रहे नन्हूं! भगवान अपने आत्म रूप की बात कह रहे हैं, वह नन्द नन्दन कृष्ण की बात नहीं कह रहे। वह तो अखण्ड, दिव्य, नित्य, प्रकाश स्वरूप परम तत्त्व के विषय में कह रहे हैं। वह कहते हैं कि :
क) जो सूर्य में स्थित ज्योति स्वरूप तेज है, वह तू मेरा ही समझ।
ख) यानि, जिस तेज से यह पूर्ण संसार देदीप्यमान हो रहा है, उसे तू मेरा ही मान।
ग) आँखों में जो ज्योति है, उसको मेरी ही जान।
घ) फिर कहा कि चन्द्रमा में जो तेज है, वह भी मेरा ही मान।
ङ) यानि, मन में जो तेज है वह मेरा ही जान।
च) मन में जो विचार तथा संकल्प करने की शक्ति है, वह भी तू मेरी ही जान।
फिर भगवान ने कहा कि अग्नि में तेज मेरा ही है।
अग्नि में भी जो तेज है, वह मेरा ही जान। यानि, वाणी में जो विषय प्रकाशित करने की शक्ति है, वह तू मेरी ही जान। जो भी जहाँ भी प्रकाशित होता है, वे सब तू मुझमें ही प्रकाशित हुआ जान ले। किसी भी तेज पूर्ण शक्ति में जो तेज है, वह उसका अपना तेज नहीं है। वह तेज भगवान का ही है। वह तेज आत्मा का ही है।