उर्वशी कौन

सुशील धीमान (Pujya Chhote Ma)

 

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२६ अगस्त १९७४

वाङ्मय अनुपम ‘उर्वशी’ से मेरा नाता चिर परिचित प्रतीत होता है। ‘उर्वशी’ का अभंग स्फुरित गायन रूप प्रवाह माँ के हृदय से बह कर, जन्म-जन्मांतरों के संस्कार रूपा मल धोकर, प्रयोजन समाप्ति पर प्रसाद रूप में परम मौन की स्थिति दे गया। ऐसी अनादि-सरस-सरिता को लेखनीबद्ध संकलित करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ, यह निश्चित ही राम कृपा का परिणाम है। माँ के सम्पर्क में अहर्निश सहवास की हार्दिक चाहना सुदीर्घ काल से जागृत हो चुकी थी – उस वांछित इच्छा की पूर्ति का समय आ गया।

 

माँ की पूजा मार्च १९५८ को आरम्भ हुई। प्रारम्भ में ही शास्त्र (गीता, उपनिषद् आदि) के प्रति माँ का भाव ज्योतिर्मय श्रद्धा का रूप था। शास्त्र-कथन उनके लिये आदेश था, उपदेश नहीं। उनकी अतीव तीक्ष्ण तथा मर्म-भेदी बुद्धि इस निष्कर्ष पर तत्काल ही पहुँच गई कि भगवान की कथनी सत्य है, क्योंकि काल उसकी परीक्षा ले चुका है। माँ के लिये गीता कथन तो भगवान के मुखारविन्द से प्रवाहित ज्ञानामृत था। उसी प्रसाद को पान करने के लिये माँ शरणापन्न रहने लगीं और इसी के फलस्वरूप, स्वच्छन्द स्फुरणा बहने लगी। सर्वप्रथम भाव रूपा पतिया का गद्यात्मक रूप उपलब्ध होता है, तत्पश्चात् अकस्मात् ही पद्यशैली प्रधान हो गई। भाव प्रवाह, तीव्र गति प्राप्त करके, अभंग स्फुरणा के रूप में बह निकला।

 

माँ की अतीव सावधानता, तीक्ष्ण तथा साधना-पथ विघ्नदर्शी बुद्धि का प्रमाण देखना हो तो उनके इस महा-पावन ज्ञान प्रवाहरूप गायन का नाम ‘उर्वशी’ रखने से दर्शाता है। माँ ने इस प्रवाह का नाम ‘उर्वशी’ रख दिया जो वाणी की अधिष्ठात्री देवी तथा अंधियारे में विद्युत समान ज्योति करने वाली है। जिस हृदय में यह बसती है, उस जीव की कामना, तृष्णा, संगपूर्ण अशुद्ध चित के नग्न रूप को नहीं देख सकती। यह जीव में यदि उसका अशुद्ध रूप देख ले तो अन्तर्धान हो जाती है। गायन के प्रति अपने आपको चेतावनी देते हुए आरम्भ में ही कहा

इक दिन इक छोटी सी पैंसिल, कवि के हाथ लगी।

‘कवि’ ने पैंसिल लेकर ‘कर’ में, लम्बी काव्य लिखी

पैंसिल को अभिमान हुआ, हाय! मैं कवि बनी।

यह सुन कर मैं मुस्कायी, और ज़ल्द गम्भीर हुई

साधक सचेत रहे और निज ज्ञान से संग न कर बैठे, कर्तृत्व भाव या अहंकार न उठ आये, वरना इसी बहाव का संग साधना के पथ पर महा भीषण विघ्न रूप धर लेगा। इस कारण इस महाकाव्य का नाम ‘उर्वशी’ रख दिया। ज्यों-ज्यों प्रवाह जीवन का रूप धारण करता गया, माँ राम चरण में विभोर हो विभिन्न नामों से इसे पुकारे गईं। इसी प्रवाह को सत्यभाषिणी, मृदुल भाषिणी, परम पावनी, राम कृति, छंद वादिनी, अमृत प्रवाहिणी, गंगा प्रवाह तथा अन्य अनेकों सत्य तथा प्रेमप्रद नाम भी देती गईं, किन्तु यह सब कह कर ‘उर्वशी’ कह दिया, ताकि वह अपने जीवन में निरन्तर सावधान रहें, क्योंकि ‘उर्वशी’ एक जीवन पर्यन्त परीक्षा है। साधक जब योग स्थिति तथा ब्रह्म स्थिति में स्थित हो जाये तो ‘उर्वशी’ उसी के स्वरूप में लय हो सकती है। यदि साधक राहों में पथ भूल जाये और लोभ तृष्णायुक्त हो जाये तो ‘उर्वशी’ अंतर्धान हो जाती है। इस कारण काव्योद्गार बह निकला, कि इस पूंजी पर कुबेर के समान बैठूँगी, क्योंकि यदि अभी ‘उर्वशी’ की प्रतिष्ठा आरम्भ हो गई तो प्रियतम राम घर नहीं आयेंगे और राहों से लौट जायेंगे। माँ का भाव था मुझे नाम नहीं – राम चाहिये। माँ की इस विषय में भी पूर्णतया जागृति थी कि ‘उर्वशी’ सूक्ष्मातिसूक्ष्म संग के कारण भी रूठकर जा सकती है। इस क्षणिक संशय के आविर्भाव होने पर पुकारने लगतीं –

राम ने मुझे वर्गलाने को, एक कवियत्री भेज दी।

पतिव्रत धर्म निभाने को, सावित्री क्यों न भेज दी

कभी राम से कहतीं, “हे राम! तुलसी, मीरा और सूरदास जी के भावनोद्दीप्त उद्गारों को सुनने के लिए तुम स्वयं आये थे। क्या मेरी पुकार पर नहीं आओगे?” इसके लिये पपीहा से सुरीली तान माँगती हैं और उसे आश्वासन देती हैं कि प्रियतम के प्राक्ट्य पर तान लौटा दूँगी। यदि माँ ‘उर्वशी गायन’ को अपना वाङ्मय मानतीं तो पपीहा से सुर न माँगतीं। उनके लिये प्रवाह का इतना ही प्रयोजन था कि वह आंतरिक मल धोकर राम से मिला दे।

कभी-कभी बहुमूल्य निधि को लेखनीबद्ध करते हुए मेरी हार्दिक चाहना होती कि माँ को सुना दूँ। यदि कभी सौभाग्यवश ऐसा सुअवसर प्राप्त हो भी जाता तो एक दो पंक्तियों के पश्चात ही उन्हें निद्रा आ घेरती। कितनी निं:संगता थी कि अपनी प्रशंसा भी उन्हें मोहित न करती। यह भी ध्यान न आता कि मेरी लिखने की त्रुटियों को ही शुद्ध कर दें, क्योंकि बहाव में नाम तो उन्हीं का आयेगा। जब मैं उन्हें कहती कि बहाव आपका है तो कह देतीं – “कोई सज्जन स्वेच्छा से मेरे आंतर में आकर मल धो रहा है। उसे पूर्ण स्वतन्त्रता है कि जब चाहे जा सकता है। मैं उससे गिला नहीं करूँगी।” माँ की इस बहाव के प्रति इतनी उदासीनता थी कि उनके घर वाले उर्वशी कृत रचनाओं से पूर्णतया अपरिचित थे। एक बार कहीं भनक पड़ी कि उर्वशी के विषय में किसी को ज्ञात हो गया है, तो तड़प कर कहने लगीं –

यह क्या है ओ लीलाधर, शास्त्र का जग को बता दिया।

क्या पथ-भ्रष्ट करने को, विघ्न नव ला के खड़ा किया

अपमान तो शायद सह सकूँ, मान न सह सकूँगी राम।

ऐसो को तुम कयों भेजो, जिसको न सह सकूंगी राम॥

जो फूल चरण में चढ़ चुके, उनसे मुझको काम क्या।

शुष्क ही जब हो चुके, उन पर धरूँ मैं नाम क्या

जब माँ चण्डीगढ़ आ गईं तो वह किसी को भी मिलने बाहर नहीं जाती थीं। सत्संगी और नातेदार जो घर में मिलने आते, उन्हें तो मिल लेतीं, किन्तु बाहर किसी का न्यौता स्वीकार न करतीं। इन सबके कारण ‘वाईस चांसलर’ ने माँ को कार्यालय में बुलाया और कई प्रकार के अपमान जनित वाक् कहे। माँ को वह वाक् प्रभावित न कर सके, उसी विषय पर बातचीत करती रहीं जिस कारण माँ वहाँ गई थीं। जब मुझे पता चला तो मैं भड़क कर कहने लगी कि आप उन्हें उर्वशी के विषय में बतला दें। तो मुस्करा कर कहने लगीं, “मैं अपने मान के कारण नाम-धन नहीं बेचूँगी।

‘अधपका बेर हूँ, अभी मुझे मत तोड़ो

वृन्दाबन वाले अतुल कृष्ण जी, जो हिन्दी के प्रकाण्ड पंडित हैं, उनसे हमारा परिचय जालंधर में हुआ। उन्हें मैंने ‘उर्वशी’ की कुछ पंक्तियाँ पढ़कर सुनाईं, तो कहने लगे कि इसमें भावों की अतीव प्रचुरता है और सब स्वांत:सुखाय है, परन्तु भाषा शैली के दृष्टिकोण से छंद पद्धति में त्रुटि है। मैं माँ से अनुरोध करने लगी कि भाषा को परिमार्जित रूप दे दें। इसके प्रतिरूप माँ स्वयं निजी आलोचना करने लगे –

देख आलोचना मैं करूँ, सच सच तुझको बात कहूँ।

कोई भाषा नहीं आये मुझे, टूटे शब्द मैं सब कहूँ

‘उर्वशीकृत’ शास्त्रों में माँ ने कहा है – “उर्वशी बहाव साधक के लिये ‘मैं’ की चिता जलाने की विधि है।” एक और स्थान पर इसे ‘राम वियोग के आंसू’ मात्र कहा है, जो अपने प्रियतम के चिर वियोग के विरह में बहते हैं। जब तथाकथित साधना काल समाप्त हो गया, तब उर्वशी की पावनी गंगा प्रवाह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा –

महा प्रेम रे तेरे जो, उनको ही तुझे देती हूँ।

स्थूल रूप जो तूने धरा, स्थूल लोक को देती हूँ

माँ की इस अमूल्य निधि से इतनी नि:संगता थी कि इस बहाव को बिन अपनाये भगवान के चरणों में अर्पित कर दिया और ऋषिकेश जाने से पूर्व इस परम्परागत सम्पति को २६ अगस्त, १९६२ को ट्रस्ट बना कर सौंप दिया। ऋषिकेश में जब मैंने ‘उर्वशी’ बहाव के विषय में प्रश्न किया तो कहने लगीं “ऐसा प्रतीत होता है कि एक अत्यन्त साधारण जीवन पर भगवान की अतीव असाधारण छाप है। यदि तुम इसे विलक्षण कहते हो और यह कहते हो कि आगे इतने विस्तार में यह ज्ञानमय बहाव नहीं बहा तो यह ब्रह्म के विधान का वरदान है, जो इसी प्रयोजनार्थ अथवा जीव की माँग और प्रकार का प्रताप होगा।

करनाल में आकर जब माँ के पिता जी उर्वशी बहाव से अतीव प्रभावित हुए, तो उन्होंने इस दिव्य प्रवाह के विषय में माँ से पूछा कि क्या उर्वशी लक्ष्य बन सकती है? माँ प्रश्नोत्तर में कहने लगीं – “उर्वशी इक वाक है, जहाँ पूजा बिना कुछ नहीं। वह केवल नाम की महिमा गाती है, राम से बातें करती है और राम कृपा से बहती है, वह केवल चरणों की धूल है और धूल को तिलक लगा देना भूल है। मिलन तो लक्ष्य से होता है, शब्द पथ दर्शा सकते हैं, वह केवल अपने प्रेमास्पद के चाकर हैं।” एक अन्य स्थान पर कहा –

तिलक उर्वशी बन न सके, लक्ष्य बन न पायेगी।

वह पथ है जान मना, राम तलक ले आयेगी

सम्पूर्ण ‘उर्वशीकृत’ रचनाओं में कथित जो भी वाक् है वह माँ के जीवन का अनुभव है। माँ को एक बार कहते सुना :

जो कहे वह तब मानो, गर आप तुला पे तुल जाये।

सत्यता उसकी तब मानो, गर जीवन ज्ञान से तुल जाये

गर तुला से जीवन नहीं तुले इसकी ओर तुम मत देखो।

काग़द के टुकड़े हैं यह, दरया में इन्हें फेंक दो

हम जैसे जीवों को, जिनकी बुद्धि मान्यताओं से बंधी हुई है, उन्हें कहते हैं कि “गर तुला पे न तुलूँ तो मुझे बता दो, मैं पूजा फिर से आरम्भ कर दूँगी।” यह एक ओर अतीव झुकाव दर्शाता है और दूसरी ओर अथाह सत की शक्ति प्रदर्शित करता है।

अब दिव्य तन के दिव्य कर्म हैं। ज्ञान की अथाह सागर माँ प्रश्नकर्त्ता की प्रेरणा से बह जाती हैं। भक्त पूछे तो भक्ति प्रवाह विलक्षण, ज्ञानी पूछे तो तत्व का ज्ञान बह जाता है, कर्म काण्ड के विषय में पूछें तो उसका विचित्र प्रमाण देते हैं, वेदांत वाले को अखण्ड अद्वैत के विषय में ज्ञान देते हैं – यही उनकी महासत्यता का प्रमाण है। यदि केवल शाब्दिक ज्ञान होता तो, इस प्रकार के अद्वितीय ज्ञान का स्वत: बहाव असम्भव था। यह प्रज्ञा बहाव केवल प्रश्नकर्त्ता के प्रश्नोत्तर तक ही सीमित नहीं, बल्कि तीनों स्तरों पर प्रमाणित रूप में उनके जीवन में प्राप्त होता है। शास्त्रीय तुलानुसार ऐसा अद्वितीय प्रमाण, जहाँ सत् पूर्णरूपेण प्रकाशित हो रहा है, वह प्रज्ञानघन ही हो सकता है। इस प्रकार अपने प्रति पूर्ण उदासीन, महामौन और सहज में स्थित माँ के दर्शन होते हैं।

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