Chapter 18 Shloka 24

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन:।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।२४।।

All such actions

that are performed with great effort,

engendered by desire for the fruit of action

and ridden with ego, are rajsic by nature.

Chapter 18 Shloka 24

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन:।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।२४।।

Now defining actions wherein the attribute of rajas predominates, the Lord says:

All such actions that are performed with great effort, engendered by desire for the fruit of action and ridden with ego, are rajsic by nature.

Little one, the Lord now specifies that “Those actions which are performed with ego are rajsic in character.” That is, those deeds which are full of pride, hypocrisy, conceit, and which are generated by the intellect that is subservient to the body-self, are essentially rajsic.

Actions fostered by desire for their fruits:

a) actions inspired by coveting the fruit thereof;

b) actions instigated by selfish greed and desire;

c) actions performed only for the satiation of one’s hypocritical tendencies;

d) actions performed only for one’s self-establishment;

– are rajsic actions.

Actions performed with great effort

1. That action which employs one’s entire energy and stamina to such an extent that one is left with no time to perform one’s obligatory deeds, such action may be considered as rajsic.

2. Excessive endeavour inevitably leads to mental tension.

3. The greed of a covetous person is never satiated – although such a one endeavours intensely and undergoes subsequent tension.

4. Desires too, can never be adequately fulfilled – if one desire ceases, another rears its head. This too, leads to stress.

5. Selfish deeds will inevitably be stressful.

6. Selfish folk have no time even for their own children and family.

The rajsic individual desires:

a) to obtain every such object which possesses attributes that augment the ego;

b) to establish the body-self at any cost.

Ego itself magnifies anxiety. It is rajsic in nature. It yearns for the satiation of desires. Ego is devoid of divine qualities. In fact, ego and divine qualities cannot co-exist. Rajsic deeds are actions in which demonic qualities preponderate.

Stressful actions

Little one, the truth is that:

1. It is in fact much more stressful to indulge in deceitful and dishonest deeds.

2. Those who are tyrannical and wicked evil doers, live in constant anxiety.

3. Where there is no love, there, stress is inevitable.

4. Where there is no truth, fatigue is inevitable.

5. Where there is no self-control, anxiety will prevail.

Rajsic beings are greedy and therefore constantly unsatiated. However much one endeavours to fulfil one’s desires, they continue to expand unabatedly.

Endeavour grows in ratio with one’s greed. Such people are oblivious to the attribute of sattva. They do not act in accordance with sattva and consider themselves to be absolved of all duties.

There is not a trace of compassion in the hearts of rajsic individuals. Such egoistic and greedy people labour as incessantly as ants. Their entire lives pass in this manner. They do not know how to relax.

These rajsic andtamsic beings take great pride in their job, their position, their wealth and their renown. Their actions reek of their wealth, their pride and their arrogance.

अध्याय १८

यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुन:।

क्रियते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम्।।२४।। 

अब भगवान राजसिक कर्म के लक्षण बताते हैं और कहते हैं:

शब्दार्थ :

१. जो कर्म बहुत परिश्रम से,

२. तथा फल की चाहना लिए हुए

३. और अहंकार युक्त होकर किए जाते हैं,

४. वे राजस कर्म कहलाते हैं।

तत्त्व विस्तार :

नन्हीं जान्! अब भगवान कहते हैं, जो कर्म अहंकार युक्त होकर किए जाते हैं, वे राजस कर्म हैं, यानि अभिमान पूर्ण कर्म, दम्भ दर्प पूर्ण कर्म, देहात्म बुद्धि युक्त कर्म राजस कर्म हैं।

कर्म फल की चाहना से प्रेरित हुए कर्म, यानि,

1. फल चाहना से प्रेरित हुए कर्म,

2. लोभ, तृष्णा और केवल स्वार्थ से प्रेरित कर्म,

3. केवल दम्भ पूर्ति के लिये किये हुए कर्म,

4. केवल अपनी स्थापति के लिए किये हुए कर्म, राजस हैं।

बहु परिश्रम युक्त कर्म :

क) जिस कर्म के करने में पूर्ण श्रम लग जाये, जीव की पूर्ण शक्ति व्यय हो जाये और उसे नियत कर्म करने का समय ही न मिले, ऐसे कर्म राजसिक हैं।

ख) अत्यधिक परिश्रम मनोक्लेश देता है।

ग) भाई! लोभी का लोभ तृप्त नहीं होगा, काम भी बहुत करेगा, क्लेश भी होगा ही।

घ) कामनायें भी कभी पूरी नहीं होतीं, एक ख़त्म हुई, दूसरी उठ आती है, तो क्लेश भी होगा ही।

ङ) सकाम कर्म क्लेश पूर्ण ही होते हैं।

च) इन लोगों को अपने बच्चों तथा परिवार के लिए भी समय नहीं मिलता।

रजोगुण वालों की चाहना यह होती है कि :

1. जिन जिन वस्तुओं में अहंकार वर्धक गुण हैं, वे मिल जायें।

2. जैसे भी हो, वे अपने तन को स्थापित कर लें।

अहंकार स्वयं क्लेश देने वाला कर्म है, यह राजसिक गुण है। अहंकार कामना पूर्ति के लिए तड़पेगा ही।

भाई! अहंकार के पास दैवी गुण नहीं होते। अहंकार और दैवी गुण सम्पदा का संयोग नहीं हो सकता, राजसिक कर्म असुरत्व प्रधान कर्म हैं।

क्लेशपूर्ण कर्म :

नन्हूं! सच तो यह है :

1. धोखेबाज़ी और बेईमानी पूर्ण कर्म करने में लाख क्लेश होते हैं।

2. अत्याचारी, दुराचारी एवं दुष्ट लोग नित्य क्लेश में रहते हैं।

3. जहाँ प्रेम नहीं, वहाँ कष्ट होगा ही।

4. जहाँ सत् नहीं, वहाँ थकान होगी ही।

5. जहाँ संयम नहीं, वहाँ क्लेश होगा ही।

रजोगुणी लोग तो लोभपूर्ण होते हैं, इसलिये वे नित्य अतृप्त होते हैं। जितनी जितनी कामना पूर्ण करने के यत्न करते हैं, उतनी ही वह और बढ़ती जाती है।

जितना लोभ बढ़ जाये, परिश्रम भी अनुकूल ही बढ़ जाता है। सतोगुण से ये लोग बेगाने होते हैं। ये सतोगुण पूर्ण काज नहीं करते। अपने को ये कर्तव्य विमुक्त समझते हैं।

करुणा का कहीं नामोनिशान नहीं होता रजोगुणी लोगों में। ये लोभपूर्ण अहंकारी कीड़ों की तरह परिश्रम करते हैं। इसी में उम्र बीत जाती है, आराम से बैठना ये जानते ही नहीं।

रजोगुणी लोगों को और तामसिक लोगों को अपनी नौकरी का गुमान होता है, अपनी कुर्सी, अपने धन, अपने मान का गुमान होता है। ये हर वक्त अकड़ते ही रहते हैं, इनके कर्मों में भी धन, अकड़ और गुमान की बू आती है।

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