Chapter 18 Shloka 22

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।

अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।२२।।

That knowledge which is confined to a single activity

as though it constituted the whole reality,

which is devoid of rationality, which is based

on false interpretations and which is petty,

that knowledge is tamsic in nature.

Chapter 18 Shloka 22

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।

अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।२२।।

Now the Lord speaks of tamsic knowledge.

That knowledge which is confined to a single activity as though it constituted the whole reality, which is devoid of rationality, which is based on false interpretations and which is petty, that knowledge is tamsic in nature.

First understand the attribute of tamas and then understand the actions that spring thereof.

Tamoguna

1. Throughmoha this quality binds those who take pride in the body-self.

2. Moha born of ignorance and sloth are the basic tendencies in those who are tamsic.

3. This attribute leads to darkness.

4. It binds one to false principles due to one’s basic indolence.

5. It fosters evil thoughts and a petty intellect.

Kaarya (कार्य)

1. The inevitable outcome or result of some act is known as kaarya.

2. The manifestation of an activity is kaarya.

3. Doing one’s duty is kaarya.

4. All that one does in life is kaarya.

5  Actions connected with one’s business or trade are also called kaarya.

6. One’s purpose is also kaarya.

7. Duty which should be done is alsokaarya.

Little one, the Lord has specified, that to busy oneself in a single activity is tamsic. This ‘single’ activity could be taken to mean activity that springs from the focus on a single body-self. Thus it also means:

a) those who consider the body-self to form this entirety and whose actions stem from this attachment are tamsic;

b) those who focus on any one task as all important and whose actions spring from their attachment to that work, are indeed tamsic.

To engage in a single action having forgotten all else is sheer foolishness. Man has several types of duties – he has several relationships to fulfil. For example, a man is a son to one person and a husband to another. He is the father of his progeny as well. He has to handle each of these relationships separately; he has to interact differently in each, in order to fulfil all the different obligations.

So also,

1. When an individual is engaged in a job, he has a boss.

2. When he engages people to work under him, he has obligations towards his employees.

3. When that individual is occupied in business, he earns wealth.

Thus there are several duties of a human being, all of which have to be dispensed with shrewdness and alacrity. An individual who focuses on only one single facet and forgets everything else – obliterating all other duties from his memory, that individual is tamsic by nature. To consider one single undertaking as one’s entirety and to become unnaturally attached to it is sheer foolishness.

The individual who is thus attached to a single undertaking:

a) for him nothing else exists;

b) acts only for the fulfilment of that work;

c) speaks only of that activity;

d) lives and dies only to perform that activity;

e) is prepared to sell himself, to become humble or haughty, whatever is required for achieving that one purpose.

For the tamsic individual, only his body-self is all important. His body is his God and it means everything to him. All that he does is for the sake of his body-self. If he becomes attached to wealth, he will forget all else in his endeavours to accumulate wealth. This, too, is his foolishness. Such a one has no time or leisure for his spouse, children, parents or any other relations.

Tamsic knowledge

1. The conviction of such people springs from false concepts and is devoid of rationale.

2. They are enmeshed in the theory of knowledge and hence find it impossible to identify with the other.

3. They misunderstand the principles of knowledge and adhere to their erroneous illusions.

4. These egoistic, arrogant people are intolerant of others and oppose anyone who attempts to come in their way.

5. They make many plans but these plans remain unfulfilled and unsuccessful since they are illogical.

6. Their knowledge is not based on scriptural decree.

7. Their convictions are without foundation and they give imaginary interpretations to knowledge.

8. They do not even know the method of translating knowledge into their lives – they can only expound its theory.

9. When they are unable to perform their duty, they give false meanings to scriptural tenets and distance themselves from the true definitions.

The problem is that such people are extremely stubborn.

1. They abide in illusion themselves and drown the other in the same delusion.

2. They propagate their false convictions with great vigour and verve.

3. They attribute false meanings even to the code of duty as expounded by the Scriptures.

4. They do not understand the connotation of living life in the spirit of yagya and instead give a different meaning to the term ‘yagya’.

5. They change the meanings of those truths, which they are unable to apply in their own lives.

6. They consider themselves to be extremely important and great and are also able to influence others.

In reality these people are exceedingly petty. However little one, you must remember that this is not on account of the individual himself, but the result of the attribute of tamas in him.

The words and deeds of such people flow spontaneously from their attributes. Those who possess the attribute of tamas always believe themselves to be correct but the wise man realises that such people are full of trivial, insignificant attributes and that their intellect is veiled by the attribute of tamas.

अध्याय १८

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम्।

अतत्त्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।२२।।

अब भगवान तामस ज्ञान की बात करते हैं।

शब्दार्थ :

१. और जो ज्ञान एक काम में पूर्ण के समान आसक्त है,

२. तथा बिना युक्ति वाला,

३. मिथ्या अर्थ वाला और तुच्छ है,

४. वह तामस कहलाता है।

तत्त्व विस्तार :

सर्व प्रथम तमोगुण को समझ ले। फिर उसके आधार पर उसका कार्य समझ ले।

तमोगुण :

क) यह देहाभिमानियों को मोह से बान्धता है।

ख) अज्ञान से उत्पन्न मोह और प्रमाद इसके गुण हैं।

ग) यह अन्धकार उत्पन्न करता है।

घ) यह प्रमाद के कारण मिथ्या सिद्धान्तों से बन्धा होता है।

ङ) दुर्मति दुर्बुद्धि होता है।

कार्य :

अब कार्य को समझ ले!

1. किसी कार्य का अनिवार्य परिणाम कार्य है,

2. किसी कार्य का रूप निर्माण कार्य है,

3. कर्तव्य करना भी कार्य है,

4. जीवन में जो भी करो, उसे कार्य कहते हैं,

5. काम धन्धे को भी कार्य कहते हैं,

6. प्रयोजन को भी कार्य कहते है,

7. करने योग्य कर्तव्य को भी कार्य कहते हैं।

लाडली जान्! भगवान ने कहा, ‘एक कार्य करना तामसिक है।’ ‘एक’ कार्य रूप से अधिकांश अर्थ, एक तन रूप कार्य भी लिया जाता है। तो इसका अर्थ यूँ समझ लो कि:

– जो तन को ही परिपूर्ण समझ कर, नित्य इसमें आसक्त हुए कार्य करते हैं,

– किसी एक काम धन्धे को पूर्ण समझ कर उससे आसक्त हुए कार्य करते हैं,

वे तामसिक हैं। अन्य सब कुछ भूल कर किसी एक कार्य में लग जाना मूर्खता है, क्योंकि जीव के अनेकों विधियों के कर्तव्य होते हैं, उसे अनेकों प्रकार के नाते निभाने होते हैं।

उदाहरणतयः एक आदमी किसी का पुत्र है, तो वह किसी और का पति भी है और किसी का पिता भी; इन सबमें उसने पृथक् पृथक् नाते निभाने हैं; पृथक् पृथक् व्यवहार करने हैं।

इसी ढंग से :

1. जीव जब नौकरी करता है, तो उसका कोई मालिक भी होगा।

2. जीव जब काम करता है, तो उसका कोई नौकर भी होगा।

3. फिर जीव जब व्यापार करता है तो धन कमाता है।

इसी प्रकार जीव के अनेकों पहलू होते हैं, जो सब ही उसे दक्षता से निभाने चाहिये। जो जीव एक काज में लग जाता है और अन्य सभी कुछ भूल जाता है, यानि, सभी कर्तव्य भूल जाता है, वह तामस वृत्ति का होता है। एक कार्य को ही पूर्ण मान कर उसमें आसक्त हो जाना और उसके तद्‍रूप हो जाना मूर्खता है। एक विषय रूप कार्य को पूर्ण मान लेना मूर्खता है।

ऐसा जीव जिस कार्य के तद्‍रूप हो जाता है,

क) उसके सिवा उसके लिए कुछ रह ही नहीं जाता।

ख) केवल उसकी पूर्ति के लिए ही काज करता है।

ग) वह केवल उसी की बातें करता है।

घ) वह केवल उसी के लिए जीता और मरता है।

ङ) केवल उसी के लिए बिकता है, झुकता और अकड़ता है।

तमोगुण प्रधान के लिए अपना तन ही सब कुछ होता है। तन ही उसका भगवान है, उसके लिए महान् है। वह जो भी करता है, अपने तन के लिए ही करता है। यदि इसको जीवन में धन से आसक्ति हो जाये, तो यह अपने सम्पूर्ण कर्म भूल कर धन कमाने में लग जाता है; यह भी इसकी मूर्खता है। पत्नी, बच्चे तथा नाते रिश्ते या बाप के लिए इसके पास फ़ुर्सत नहीं होती।

तामसिक ज्ञान :

1. उनका ज्ञान मिथ्या अर्थ वाला और युक्ति रहित है।

2. वे ज्ञान की भाषा में अड़ जाते हैं।

3. वे दूसरे की स्थिति अनुकूल बात नहीं करते।

4. सिद्धान्तों के मिथ्या अर्थ को समझ कर उन्हीं पर अड़ जाते हैं।

5. इन अहंकार, दम्भ, दर्प पूर्ण लोगों की राह में आकर जो इनकी बातों को काट दे, ये उससे भिड़ जाते हैं।

6. ये योजन बहुत बनाते हैं, पर युक्ति हीनता के कारण असफल होते हैं।

7. ज्ञान भी शास्त्र विहित नहीं होता इन लोगों का।

8. इनके ज्ञान का आधार ही नहीं होता, वे ज्ञान को मन घड़न्त अर्थ देते हैं।

9. फिर जो ज्ञान है, ये उसको जीवन में उतारने की युक्ति नहीं जानते; ये शब्द अर्थ ही देते हैं।

10. जब कर्तव्य न कर सकें तो शास्त्र के मन्त्र को मिथ्या अर्थ देकर वास्तविक अर्थ से दूर कर देते हैं।

भाई! मुश्किल यह है कि ये लोग बहुत हठीले होते हैं।

क) स्वयं तो भ्रम में हैं ही, दूसरे को भी भ्रम में डाल देते हैं।

ख) अपने मिथ्या ज्ञान का प्रचार बड़े ज़ोर शोर से करते हैं।

ग) शास्त्र कथित कर्तव्य को भी झूठा अर्थ देते हैं।

घ) जीवन यज्ञ को न समझ कर यज्ञ का अर्थ ही बदल देते हैं।

ङ) जो तत्त्व जीवन में निभा न सके, उसका अर्थ ही बदल देते हैं।

च) ये लोग अपने आपको श्रेष्ठ समझते हैं और लोगों को प्रभावित भी कर लेते हैं।

वास्तव में ये लोग अतीव तुच्छ होते हैं। नन्हूं! यह लोगों की बात नहीं, यह गुणों की बात है। ऐसे गुण स्वतः ही ऐसी बात करते हैं और कहते हैं। जो इन गुणों से भरपूर होते हैं, वे तो यही समझते हैं कि वे ठीक कहते हैं, परन्तु बुद्धिमान जानता है कि ये तुच्छ गुण सम्पन्न हैं, यानि इनकी बुद्धि तमोगुण से आवृत है।

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