Chapter 11 Shloka 49

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्टवा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।

व्यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्त्वं  तदेव  मे  रूपमिदं  प्रपश्य।।४९।।

Do not be afraid on seeing this awesome form of Mine.

Nor should you be seized by bewilderment.

Be fearless and with a mind filled with love,

behold once more My benevolent form.

Chapter 11 Shloka 49

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्टवा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।

व्यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्त्वं  तदेव  मे  रूपमिदं  प्रपश्य।।४९।।

Bhagwan says to Arjuna:

Do not be afraid on seeing this awesome form of Mine. Nor should you be seized by bewilderment. Be fearless and with a mind filled with love, behold once more My benevolent form.

The Lord says, “You must not be afraid nor bewildered at witnessing My fearsome and terrifying cosmic form because:

1. I am ever with you.

2. I am your friend.

3. I am the same for you as I was before.

4. I love you just the same.

5. I am looking after you in the same manner as before.

6. I am sitting by your side as your charioteer.

You should have been free of fear and full of love. How can you be afraid when you know that:

a) the Lord Himself is by your side?

b) your hand is firmly held in His?

c) the Lord Himself is your charioteer?

d) you are in His charge?

Now you should be overflowing with love and coming closer to Me. This is the time to augment your love – not your fear. This is the time to draw close to me – not to distance yourself. Whatever has happened so far was due to your ignorance. Forget it all.”

It seems as though the Lord is once more trying to reassure Arjuna. He is drawing Arjuna once more into His embrace. He then says, “See! I shall once more reassume My benign form. Forget My vast cosmic form since you do not appreciate it. I shall once more become like you. But you too, must promise to augment your love.”

Arjuna had beseeched the Lord, “Pray assume Thy four armed form of Lord Vishnu!” The Lord says, “Now witness the same form you have requested.”

Saying this, the Lord once more appeared in the form of Lord Vishnu – adorned with the crown and holding the mace and discus in His four-armed manifestation.

अध्याय ११

मा ते व्यथा मा च विमूढभावो दृष्टवा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम्।

व्यपेतभी: प्रीतमना: पुनस्त्वं  तदेव  मे  रूपमिदं  प्रपश्य।।४९।।

भगवान कहते हैं अर्जुन से :

शब्दार्थ:

१. मेरे इस विकराल रूप को देख कर

२. तू व्याकुल न हो

३. और न ही विमूढ़ भाव को प्राप्त हो।

४. भय रहित और प्रेमपूर्ण मन वाला होकर,

५. तू मेरे उसी, इस रूप को फिर से देख।

तत्त्व विस्तार :

भगवान कहते हैं, तुझे मेरा भयंकर, विकराल और विराट रूप देख कर घबराना नहीं चाहिये और न ही विमूढ़ होना चाहिये,’ क्योंकि :

1.‘मैं तेरे साथ हूँ।

2. मैं तेरा सखा हूँ।

3. मैं तेरे लिए वही हूँ जो हमेशा रहा हूँ।

4. तुझे वैसे ही प्रेम करता हूँ।

5. तेरा वैसे ही ध्यान रखता हूँ।

6. तेरा सारथी बन तेरे साथ बैठा हूँ।

तुझे तो भय रहित और प्रेम पूर्ण होना चाहिये। अब भय किसका, जब जान लिया कि :

क) भगवान तुम्हारे साथ हैं।

ख) भगवान के हाथ में तुम्हारा हाथ है।

ग) भगवान तुम्हारे सारथी हैं।

घ) भगवान तुम्हारे खेवैया हैं।

अब तो तुम्हें प्रेम विभोर होकर प्रेम में मदमस्त हो जाना चाहिये और मेरे पास आ जाना चाहिये। अब तो प्रीत बढ़ाने की बेला है, भय की नहीं। अब तो पास आने की बेला है दूर जाने की नहीं। जो हुआ अनजाने में हुआ, अब उसे तू भूल जा।’

क्यों न कहें भगवान पुन: मनाने लगे अर्जुन को! भगवान पुन: अंग लगाने लगे अर्जुन को!

फिर कहते हैं, ‘लो! मैं फिर वही सौम्य रूप धर लेता हूँ। यदि मेरा विराट रूप तुझे पसन्द नहीं है तो तू उसे भूल जा! मैं पुन: तेरे लिए तेरे समान बन जाता हूँ। तू भी तो कुछ प्रीत बढ़ा।’

अर्जुन ने भगवान से कहा था, ‘आप चतुर्भुज विष्णु का रूप धर लें!

भगवान ने कहा, ‘ले अब तू मेरा वही रूप देख।

यह कह कर उन्होंने फिर चतुर्भुज रूप धारण कर लिया। यानि मुकुट, गदा, चक्रधारी चतुर्भुज सौम्य रूप धारण कर लिया।

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