Chapter 8 Shloka 14

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।

तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:।।१४।।

O Arjuna,

whosoever remembers Me constantly

with an undivided mind,

I am easily obtainable for that Yogi

who is ever absorbed in Me.

Chapter 8 Shloka 14

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।

तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:।।१४।।

Now Bhagwan narrates the simple method of attaining the Self.

O Arjuna, whosoever remembers Me constantly with an undivided mind, I am easily obtainable for that Yogi who is ever absorbed in Me.

Hear what the Lord has to say little one! “He who unceasingly remembers Me at all times, that Yogi, focused on Me with an unswerving mind, will speedily attain Me.”

It almost seems as though the Lord is begging the jiva for alms of love. He repeatedly says:

1. “Love Me a little more!

2. I am yours!

3. I will relieve you of all your sorrows.

4. I will ensure your absorption into Om.

5. I will mould you in My own likeness.

6. I will ensure your deliverance from the body idea.

7. I will annihilate your ego.

8. I will cleanse you of ignorance and make you the embodiment of knowledge.

9. All your tasks will be fulfilled even better.

10. Your life will become beautiful.

11. I will give you all that you seek.

12. All your sins of many lifetimes will be washed away.

13. I will become your servitor and fulfil all your tasks.

14. Only love Me a little more!”

Little one,

a) The Lord cannot be attained through knowledge.

b) He cannot be achieved through extensive tapas – endurance and forbearance.

c) If you truly love, all these will naturally follow.

d) If the Lord’s memory is constant within your heart, you can attain Him with ease.

e) If He is always beside you as your witness, you can attain Him with ease.

f) They who do not let Him out of their memory even for a moment, attain His Essence with ease.

g) When your desire is for the Lord, He will be at your side.

h) He will never sever his relationship with you.

Yoga is love. Yoga is union with the Beloved. When such love happens, the Yogi cannot forget his Beloved even for an instant. That individual lives only for his Beloved. Ultimately, only the Beloved remains.

This is Yoga. This is love. This is the Truth. This is the Name divine. This is the aspirant’s hope, his thirst and his quest.

अध्याय ८

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।

तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:।।१४।।

अब भगवान सहज में ही स्वरूप को पाने की विधि बताते हुए कहने लगे :

शब्दार्थ :

१. हे अर्जुन! जो पुरुष अनन्य चित्त से,

२. अहर्निश, निरन्तर मेरे को स्मरण करता है,

३. उस निरन्तर मेरे में युक्त हुए योगी के लिये मैं सुलभ हूँ।

तत्व विस्तार :

सुन मेरे सजन क्या कह रहे हैं! जो मुझे नित्य, सततम्, नित्य युक्त, अनन्य चित्त होकर सिमरेगा, वह जल्द ही मुझे पायेगा।

ऐसा लगता है कि भगवान जीव से प्रेम की भिक्षा माँग रहे हैं और बार बार कहते हैं कि,

1. मुझे थोड़ा प्यार और कर।

2. मैं तुम्हारा ही हूँ।

3. मैं तुम्हारे सब दु:ख दूर कर दूँगा।

4. मैं तुम्हें ओम् में विलीन कर दूँगा।

5. मैं तुझे अपने समान बना दूँगा।

6. मैं तुझे तनत्व भाव से परे कर दूँगा।

7. मैं तेरा मोह पूर्णतय: मिटा दूँगा।

8. मैं अज्ञान का अभाव करके तुझे ज्ञान स्वरूप बना दूँगा।

9. तेरे सब काज और भी अच्छी तरह से होंगे।

10. तेरा जीवन सौन्दर्य पूर्ण हो जायेगा।

11. और भी तू जो चाहे मैं तुझे दूँगा।

12. तेरे जन्म जन्म के पाप धुल जायेंगे।

13. मैं तेरा चाकर बन कर तेरे काज संवार दूँगा।

14. बस थोड़ा सा मुझे प्रेम और कर।

नन्हीं!

क) ज्ञान से राम नहीं मिलते।

ख) बहु तप किये राम नहीं मिलेंगे।

ग) सांचो प्रेम गर हो ही गया तो यह सब सहज में हो जायेगा।

घ) तेरे हृदय में यदि नित्य भगवान की स्मृति बनी रही तो तुझे भगवान आसानी से मिल सकते हैं।

ङ) गर वह हर पल तुम्हारे साथ रहें साक्षी के रूप में तो तुझे भगवान आसानी से मिल सकते हैं।

च) जो स्मृति में भगवान का साथ इक पल नहीं छोड़ेंगे उन्हें स्वरूप आसानी से मिल सकता है।

छ) जब तुम उन्हें चाहोगे, वह तुम्हारा साथ देंगे।

ज) वह नाता कभी नहीं तोड़ेंगे।

योग प्रेम को कहते हैं, योग प्रियतम से मिलने को कहते हैं। प्रेम जिस पल हो जाये, योगी को प्रेमास्पद इक पल भी नहीं भूलता। तब वह जीव केवल अपने प्रेमास्पद के लिये जीता है। शनै: शनै: प्रेम करने वाले की जगह पर केवल प्रेमास्पद ही रह जाता है।

यही योग है, यही प्रेम है, यही सत् है, यही नाम है। अजी बस! यही तो साधक की आस है, यही तो साधक की प्यास है।

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