Chapter 6 Shloka 4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारुढस्तदोच्यते।।४।।

When he ceases to have any attachment

with sense objects or with actions,

then that sanyasi who is devoid of all thoughts

can be said to be established in Yoga.

Chapter 6 Shloka 4

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारुढस्तदोच्यते।।४।।

Now the Lord elucidates the attributes of a Yogi:

When he ceases to have any attachment with sense objects or with actions, then that sanyasi who is devoid of all thoughts can be said to be established in Yoga.

Little one, first understand the connotation of Anushajjatay (अनुषज्जते)

a) Attachment;

b) an unconscious desire;

c) that which remains in the mind;

d) latent tendencies;

e) a methodology lying latent;

f) to remember an object even after physically discarding it;

g) to remember habitually.

When even the latent and unconscious memory or desire fades away, the individual can be said to be established in yoga. Such a one is called a ‘Sarva Sankalp Sanyasi’ (सर्व संकल्प संन्यासी)

Now understand Sankalp’ (संकल्प)

1. Sankalp is the power of desire.

2. It is the faculty of thought and cogitation.

3. Mental conceptualisation of one’s plans and resolutions.

4. Thought and cogitation for the fulfilment of any specific aspiration.

5. The origin or root of all action is called sankalp.

6. The motivator of all action is called sankalp.

7. The origin of desire and the inspiration for action is also called sankalp.

Now listen carefully little one, the Lord defines the Sarva Sankalp Sanyasi:

The Lord exhorts us here to renounce sankalp – not action. The question that arises now is that if one is to renounce the very thought that is an impetus to action, then how will actions be performed?

It is also clear that the Lord has so far advised us to:

a) renounce desire,

b) renounce thought,

c) renounce attachment,

d) renounce the fruits of action,

e) renounce the memory of sense objects,

f) renounce raag and dvesh.

He has not commanded us to renounce action.

Prakriti impels action

Little one, action is triggered both by thought and by Prakriti. Actions impelled by Prakriti are natural actions. In daily life some actions of the individual are generated or promoted by sankalp or thought, and some by the person’s own nature.

Prakriti has imparted a tricoloured nature to each individual, constituted of the three gunas which are self-motivated and self-functioning. These gunas of Prakriti interact unconsciously and automatically with the other attributes of the external world. All actions are produced through this habitual interaction of attributes with which one is endowed. It is not necessary to take the support of sankalp or thought in order to act. Prakriti’s channel of action is self-moving, spontaneous and self-promoting.

Sankalp is unnecessary for actions impelled by Prakriti

1. Sankalpas are generated when the ‘I’ becomes predominant.

2. They arise with the predominance of the body idea.

3. They are born when one’s individuality is given undue prominence.

4. They are based on raag and dvesh.

5. They are born of attachment and hope.

6. They arise in order to formulate some scheme or programme.

7. Sankalpas are an expression of the mind’s desire.

Who is devoid of sankalp?

a) Those Yogis who forget the body idea.

b) Those who forget their attachment to sense objects.

c) Those Yogis who forget all else in surrender to the Supreme.

d) Those who realise that Brahm is all and become devoid of the feeling of ‘I’ and ‘mine’.

The Lord says, that he who becomes completely detached from all action and sense objects, is devoid of sankalp. He is established in yoga.

अध्याय ६

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते।

सर्वसंकल्पसंन्यासी योगारुढस्तदोच्यते।।४।।

अब भगवान योगारूढ़ के लक्षण बताते हैं :

शब्दार्थ :

१. जिस काल में वह न इन्द्रियों के अर्थों में

२. और न ही कर्मों में आसक्त होता है,

३. उस समय सर्व संकल्प सन्यासी, योगारूढ़ कहा जाता है।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! प्रथम ‘अनुषज्जते’ का अर्थ समझ ले :

अनुशंग का अर्थ है :

1. निरासक्त;

2. निहित संग रहित;

3. मानसिक अचेत चाहना;

4. ध्यान में रहना;

5. संस्कार रूप में छिपे रहना;

6. विधि रूप में निहित रहना;

7. बाह्य विषय के त्याग के पश्चात् मन में उसका ध्यान रहना;

8. बाह्य विषय के त्याग के पश्चात् उसकी स्मृति का बने रहना;

9. स्थूल त्याग के पश्चात् भी मन में पूर्व अभ्यास के कारण उस विषय का ध्यान रह जाना।

जब यह अचेत स्मृति भी मिट जाये, तब जीव योगारूढ़ हो जाता है। तब यह योगारूढ़ सर्व संकल्प संन्यासी कहलाता है।

अब ‘संकल्प‘ को समझ! संकल्प :

क) इच्छा शक्ति को कहते हैं;

ख) विचार विमर्श को कहते हैं;

ग) निजी प्रयोजन की मानसिक कल्पना और इरादों को कहते हैं;

घ) किसी निश्चित रूचि की पूर्ति की चाह के लिये मानसिक विचार तथा चिन्तन को कहते हैं;

ङ) कर्म का मूल भी संकल्प कहलाता है;

च) कर्म का प्रेरक भी संकल्प कहलाता है;

छ) कामना का मूल भी संकल्प कहलाता है।

अब नन्हीं, ज़रा ध्यान से समझ!

सर्व संकल्प संन्यासी :

यहाँ भगवान संकल्प त्याग करने को कह रहे हैं, कर्म त्याग करने को नहीं कह रहे। तब सवाल यह उठता है, कि संकल्प के बिना कर्म कैसे हो सकता है? संकल्प ही न हुआ, तो कर्म का प्रेरक कौन होगा? यह भी स्पष्ट है, कि भगवान :

1. कामना के त्याग को कहते हैं;

2. संकल्प त्याग करने को कहते हैं;

3. आसक्ति त्याग करने को कहते हैं;

4. कर्मफल की चाह के त्याग को कहते हैं;

5. विषय की स्मृति के त्याग को कहते हैं;

6. राग और द्वेष के त्याग को कहते हैं;

कर्म त्याग करने को नहीं।

कर्म प्रेरक प्रकृति :

नन्हीं! कर्म का मूल संकल्प भी होता है और कर्म का मूल प्रकृति भी होती है। प्रकृति से प्रेरित कर्म सहज कर्म होते हैं। जीवन में तथा दिनचर्या में जीव के कुछ कर्म संकल्प जन्य होते हैं और कुछ कर्म स्वभाव जन्य होते हैं।

प्रकृति ने जीव को सहज ही त्रिगुणात्मक बनाया है तथा स्वत: चलित और स्वत: प्रेरित गुण दे रखे हैं। प्रकृति के दिये हुए गुण बिना जाने ही बाह्य विषयों के गुणों से प्रभावित होते रहते हैं और क्रियाशील होते रहते हैं। यानि, गुण गुणों में वर्तते रहते हैं।

प्रकृति के दिये हुए गुणों को बार बार जीवन में इस्तेमाल करने से इस प्रकृति तथा जीव के स्वभाव पर कर्म आधारित होते हैं। फिर कर्मों में नियुक्त होने के लिये संकल्प का आसरा लेने की आवश्यकता नहीं होती। यह तो स्वयं प्रेरित, स्वत: सिद्ध तथा आत्म चलित कार्य प्रणाली बन जाती है। यह तो स्वत: प्रवृत्त होने वाली कार्य शक्ति बन जाती है।

प्राकृतिक कर्मों के लिये संकल्प अनावश्यक :

प्राकृतिक तथा स्वाभाविक कर्मों के लिये संकल्प की आवश्यकता नहीं होती।

संकल्प :

1. ‘मैं’ की प्रधानता में उत्पन्न होते हैं।

2. तनत्व भाव की प्रधानता में होते हैं।

3. व्यक्तिगतता की प्रधानता के कारण उत्पन्न होते हैं।

4. राग और द्वेष पर आधारित होते हैं।

5. संग के कारण होते हैं।

6. आशा के कारण उत्पन्न होते हैं।

7. कामना के कारण उत्पन्न होते हैं।

8. किसी प्रयोजन या योजन बनाने के कारण उत्पन्न होते हैं।

9. संकल्प मनो कामना है।

संकल्प रहित कौन होता है?

क) जो योगी तनत्व भाव को भूल जाते हैं, वे संकल्प रहित हो जाते हैं।

ख) जो योगी विषय संग को भूल जाते हैं, वे संकल्प रहित हो जाते हैं।

ग) जो योगी परम परायण होकर अन्य सब कुछ भूल जाते हैं, वे संकल्प रहित हो जाते हैं।

घ) जो योगी पूर्ण को ब्रह्म जानकर ममत्व भाव से रहित हो जाते हैं, वे संकल्प रहित हो जाते हैं।

यहाँ भगवान कह रहे हैं कि जो कर्म तथा विषयों के प्रति नितान्त निरासक्त हो जाते हैं, वे संकल्प रहित हो जाते हैं। वे संकल्प रहित योगी ही योगारूढ़ कहलाते हैं।

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