Chapter 4 Shloka 15

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्।।१५।।

Knowing this,

the ancient seekers of liberation

also performed actions similarly;

you, too, must engage yourself

in action like your ancestors.

Chapter 4 Shloka 15

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्।।१५।।

Knowing this, the ancient seekers of liberation also performed actions similarly; you, too, must engage yourself in action like your ancestors.

Arjuna’s question was, “O Bhagwan, please say explicitly which is more appropriate, action or knowledge? If gyan or knowledge is appropriate then why are you inducing me to fight?”

The Lord has demonstrated:

a) One cannot escape performing actions, but they must be performed without attachment and in the spirit of yagya.

b) I too, engage Myself in action but without an eye on the fruit.

c) You too, must endeavour similarly, like the seekers of liberation – the mumukshus – have done in the past.

Mumukshus (मुमुक्षु) are those seekers who ever strive to attain the state of an Atmavaan and seek freedom from the bondage of action. These elevated souls are always ready to sacrifice their all for union with the Atma.

1. Renouncing all attachments, the mumukshus’ actions are natural and spontaneous.

2. Supported by their higher intellect, they transcend gunas.

3. Their deeds are selfless; freeing themselves from body attachment, they give their faculties and potential in the service of others.

4. Keeping their Supreme Goal in mind always, their life becomes a beautiful garland of selfless deeds, every action as blemishless as a pure pearl – unique and luminous with divinity.

The Lord exhorts Arjuna, “Emulate the actions of the ancient seekers. Arise and fight!”

अध्याय ४

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभि:।

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वै: पूर्वतरं कृतम्।।१५।।

भगवान अर्जुन से कहने लगे :

शब्दार्थ :

१. पहले होने वाले मुमुक्षु पुरुषों द्वारा भी इस प्रकार जान कर कर्म किया गया।

२. तू भी पूर्वजों द्वारा सदा किये हुए कर्मों को ही कर।

तत्व विस्तार :

अर्जुन का प्रश्न था कि, ‘भगवान तुम स्पष्ट कहो, कर्म श्रेष्ठ हैं या ज्ञान श्रेष्ठ है? यदि ज्ञान श्रेष्ठ है, तो मुझे युद्ध रूपा घोर कर्म में क्यों डालते हो?’

भगवान ने सिद्ध किया :

1. कर्म तो करने ही होंगे, किन्तु निरासक्त हुआ यज्ञमय कर्म कर।

2. मैं भी कर्म करता हूँ, किन्तु नित्य निर्लिप्त हूँ, क्योंकि मैं नित्य आसक्ति रहित हूँ।

अब भगवान अर्जुन से कहते हैं कि, ‘तू भी वैसे ही कर्म कर, जैसे नित्य मुमुक्षु गण करते आये हैं।’ यहाँ मुमुक्षु का अर्थ समझ ले :

क) मुक्ति प्राप्त करने के लिये जो नित्य प्रयत्न करते रहते हैं;

ख) जो आत्मवान् बनने के लिये नित्य प्रयत्नशील हैं;

ग) जो कर्म बन्धन से मुक्त होना चाहते हैं;

घ) जो साधक अतीव उच्च स्तर पा चुके हैं;

ङ) जो आत्मा से योग करने के लिये अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार है; वे मुमुक्षु कहलाते हैं।

मुमुक्षु के कर्म :

नन्हीं!

1. मुमुक्षु गण संग को त्याग कर, सहज कर्म करते हैं।

2. विवेक के आधार पर वे गुणों से विचलित नहीं होते और गुणातीत बन जाते हैं।

3. वे नित्य निष्काम भाव से कर्म करते हैं।

4. तनत्व भाव त्याग कर, परम सिद्धि अर्थ वे अपना तन ही दान में दे देते हैं।

5. आत्मवान् बनने की राहों में वे अपने तन को दूसरों का चाकर बना देते हैं।

6. इनका जीवन यज्ञमय कर्मों की एक सुन्दर माला के समान होता है; जिसका हर कर्म रूपा मोती, अति विलक्षण दिव्य प्रकाश स्वरूप होता है।

अर्जुन को भगवान ने कहा, तू भी वैसे ही कर्म कर! इस कारण, उठ और युद्ध कर!

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