Chapter 3 Shloka 22

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।२२।।

Addressing Arjuna, Krishna says:

There is no duty for Me to fulfil

in all the three worlds;

neither do I have anything to gain.

Even so, I engage myself in action.

Chapter 3 Shloka 22

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।२२।।

 

Addressing Arjuna, Krishna says:

There is no duty for Me to fulfil in all the three worlds; neither do I have anything to gain. Even so, I engage myself in action.

Lord Krishna says:

1. There is nothing that I want for myself or which I want to achieve in the whole universe.

2. I am Knowledge Itself and nothing remains for Me to know.

3. Nor do I need to persuade anyone for I have no duty towards anyone. There is no desire to achieve or not to achieve.

4. I Myself am yagya and yagyashesh, so of what avail are these to Me? Nor do I seek realisation of the Atma – for I am the Atma Itself.

5. I seek nothing from the world for I Myself am the Giver of boons.

6. There is nothing I require in the gross, subtle or intellectual spheres. For what can this whole world offer to One who is the Atma Itself?

7. I have no action to perform nor any dharma to maintain.

8. You are witnessing My Manifest form. In reality I am formless. I have no body, only the embodied world considers Me to possess a body.

9. No duty applies to Me yet I am ever engaged in work. I live like an ordinary individual-I am here as your charioteer – I am simply fulfilling the requirements of our friendship in doing so! Similarly, I act in accordance with the relationship the other claims of Me. I perform whatever duty is expected of Me in those circumstances.

My little Abha! Understand again – Why did the Lord say ‘I have no duty’?

a) The body is ‘mine’ as long as ‘I’ remains.

b) When the ‘I’ identifies with the Atma Self rather than the body self, one transcends the body.

c) Then even ‘I’ ceases to have any claims over the body.

d) The owner of the body -‘I’ used to decide ‘I must do this or I must not do that;’ When the ‘I’ renounces this ownership, then it cannot even claim the duties that were assigned to that body.

e) The Atma has no duties, therefore the ‘I’ which has aligned itself with the Atma is devoid of duties. Then the body is ruled by the Universal Law and adopts whatever form the situation demands of it.

Little one, this is an automatic process. There is complete egolessness in the Lord’s life and dealings. Lord Krishna says, “One can only comprehend this state when one becomes an Atmavaan.” And even then, it cannot be described.

अध्याय ३

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।२२।।

श्रीकृष्ण कहते हैं अर्जुन से :

शब्दार्थ :

१. मुझे तीनों लोकों में कोई भी कर्तव्य नहीं करना है,

२. न ही किसी अप्राप्त वस्तु को पाना है,

३. फिर भी मैं कर्म करता हूँ।

तत्व विस्तार :

अर्जुन को भगवान श्याम कहने लगे कि :

1. पूर्ण जहान में मेरे लिये कुछ भी प्राप्तव्य नहीं।

2. ज्ञान स्वरूप मैं आप हूँ, मेरे लिये कुछ भी ज्ञातव्य नहीं।

3. जग वालों को भी क्यों मनाऊँ, मेरा कोई कर्तव्य नहीं।

4. कुछ पाना कुछ न पाना, ऐसा कोई भाव ही नहीं।

5. जग का कोई काज करना मेरा कर्तव्य नहीं है।

6. मैं स्वयं यज्ञ स्वरूप हूँ, यज्ञ से मैंने कुछ लेना नहीं।

7. यज्ञशेष मैं क्या खाऊँ, यज्ञ शेष भी मैं आप ही हूँ।

8. आत्म विवेक भी मैं क्या चाहूँ, आत्म स्वरूप मैं आप हूँ।

9. जग से मैंने कुछ पाना नहीं, जग को वर देने वाला मैं आप हूँ।

10. स्थूल लोक में मेरे लिये कुछ भी पाना बाकी नहीं रहा; सूक्ष्म लोक मुझे क्या देगा, या कारण लोक से मुझे क्या लेना? आत्म स्वरूप को क्या दे सकेगा यह पूर्ण संसार?

11. मेरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि मेरा कोई धर्म नहीं है।

12. तुम मुझे साकार रूप में देख रहे हो, यह तुम्हारा भ्रम ही है। मैं निराकार हूँ, मेरा तन ही नहीं है। तन से बन्धे हुए लोग ही मुझे तन धारी मानते हैं।

13. मेरा कोई कर्तव्य बाकी नहीं रह गया, फिर भी कर्म स्वरूप मैं आप हूँ। वास्तव में कर्मों की पराकाष्ठा मैं आप ही हूँ।

फिर भी देख, इस जग में :

क) मैं निरन्तर कर्म करता रहता हूँ।

ख) साधारण सा बन के रहता हूँ।

ग) तेरा सारथी बन के आया हूँ।

घ) तुझसे साख्य भाव निभा रहा हूँ।

जो नाता जिसने जोड़ा है, मैं उस नाते के अनुरूप कर्तव्य निभाता आया हूँ।

मेरी नन्हीं आभा! ‘मेरा कोई कर्तव्य नहीं’ इसे पुन: समझ ले कि यह भगवान ने कैसे कहा?

1. तन में जब तक तनत्व भाव पूर्ण ‘मैं’ होती है, तब तक ही तन अपना है।

2. जब ‘मैं’ मानो आत्मा में विलीन हो जाती है, तो ‘मैं’ का तन ही नहीं रहता।

3. ‘मैं’ के अपने ही तन पर अधिकार वर्जित हो जाते हैं।

4. तन को अपनाते हुए ‘मैं’ कहा करता था कि मुझको यह करना है या वह करना है। जब ‘मैं’ ने ही तन से मुखड़ा मोड़ लिया, तो फिर तन के कर्तव्य भी ‘मैं’ नहीं अपनाता।

5. आत्मा का कोई कर्तव्य नहीं होता। इस नाते ‘मैं’ जब आत्मा के तद्‍रूप हो जाता है तो ‘मैं’ का कोई कर्तव्य नहीं होता।

6. तब मानो तन विधान के हवाले हो जाता है फिर जैसी भी परिस्थिति आये, वह वैसा ही रूप धर लेता है।

7. जैसे लोग उसके सामने आयें, वह वैसा ही बन जाता है।

नन्हीं! यह सब स्वत: होता रहता है। यदि देखा जाये तो भगवान के जीवन में अहं का नितान्त अभाव होता है। कृष्ण कहते हैं ‘यह स्थिति आत्मवान् बन कर ही समझ आ सकती है।’ वास्तव में तब इसके बारे में कुछ कहना असम्भव होता है।

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