Chapter 3 Shloka 6

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।।६।।

Now Bhagwan says:

That foolish one,

who restrains his organs of action

but dwells mentally in the objects of his senses,

is said to be a hypocrite.

Chapter 3 Shloka 6

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।।६।।

Now Bhagwan says:

That foolish one, who restrains his organs of action but dwells mentally in the objects of his senses, is said to be a hypocrite.

Understand carefully little one! Even if one restrains one’s sense organs from indulging in external objects, if one’s mind dwells in those objects, then one is verily a hypocrite, a liar, an arrogant deceiver and a dishonourable sinner. Even if you are not partaking of that sense object physically, you are enjoying it mentally and therefore you are an ‘enjoyer’. If on the other hand, your mind does not dwell in that object, you are not an ‘enjoyer’ even if your sense faculties are partaking of that object.

From a sadhak’s point of view, to retain the memory of any particular sense object, is a sign of attachment. Therefore, it is imperative for the sadhak to abandon even the thought of having renounced that particular sense object. If even the memory of renunciation remains, then one’s attachment still persists and one’s mind stuff has not yet attained purity; desire still lingers and one is not yet satiated. Otherwise there is no ‘giving up’ – the object merely loses all meaning in one’s life.

It is the mind which is the partaker of sense enjoyment.

1. The mind enjoys those sense objects.

2. It is the mind which is ever unsatiated.

3. It is the mind which craves for sense objects.

It is the mind which retains the memory of the objects it craves – not the sense organs. If the mind is diverted, the object of desire fulfilment is forgotten; but if the mind is not fulfilled, it continually ‘partakes’ of the object it covets in the realm of thought – even if that object is not physically available. In this way, the individual becomes a hypocrite. His internal desires and cravings lie well concealed beneath a noble exterior. While he is constantly partaking of sense enjoyments, he presents the appearance of a sanyasi. Thus he deceives and cheats others.

a) When the mind no longer dwells in sense objects, then even the thought ‘I have renounced’ is forgotten.

b) There are innumerable objects in the world which one does not even notice because they do not hold one’s interest. Just as one does not give them a second thought, so also one will not dwell on those objects which one has mentally renounced.

The state of sanyas is not achieved – it just happens. The Lord is not stressing the renunciation of objects, but one’s attachment to those objects. Lord Krishna indicates the simple way towards control of the senses – ‘Mat Parah(For the meaning of Mat Parah refer Chp.2, shloka 61 & Chp.12, shloka 6).

“Fix the devotion of your mind in Me…Take refuge in Me.” If the mind is lost in Him, sense objects will automatically be forgotten.

अध्याय

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।

इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।।६।।

नन्हीं! अब आगे सुन, भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. जो विमूढ़ पुरुष कर्मेन्द्रियों को रोक कर,

२. मन से इन्द्रियों के अर्थों को स्मरण करता रहता है,

३. वह मिथ्याचारी कहलाता है।

तत्व विस्तार :

ध्यान से देख नन्हीं! भगवान क्या कहते हैं! कर्मेन्द्रियों को चाहे आप विषय सम्पर्क से रोक लें, किन्तु यदि आपका मन उन विषयों का चिन्तन करता है तो आप मिथ्याचारी हैं, झूठे हैं, कपट करते हैं, दम्भी हैं, बेईमान हैं, दुराचारी हैं। यानि जब तक मन विषयों में है, तब तक आप भोगी हैं, और जब मन विषयों में नहीं, तब सब भोग करते हुए भी आप भोगी नहीं।

देख नन्हीं! साधक के दृष्टिकोण से लें तो मन ही मन विषयों को याद करना आसक्ति है। फिर इसे तनिक सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो विषय को त्याग कर, त्याग भाव भी भूल जाना चाहिये।

यदि त्याग भाव मन में रह जाये तो यह जान लो कि चित्त अभी शुद्ध नहीं हुआ, संग अभी भी बाकी है, मोह अभी गया नहीं, विषय से मन अभी उठा नहीं। अभी निहित चाहना बाकी है, अभी तुम तृप्त नहीं हुए। वरना त्याग की बात ही नहीं रहती क्योंकि विषय का महत्व ही न रहता।

नन्हीं! विषयों का उपभोग और विषयों से संग वास्तव में मन ही करता है।

मन ही विषयों को पसन्द करके :

1. उनका उपभोग करना चाहता है।

2. मन ही नित्य अतृप्त हो जाता है।

3. मन ही नित्य लोभी बन जाता है।

मन ही विषयों को याद करता है। इन्द्रियाँ याद नहीं करतीं। यदि मन कहीं और लग जाये तो उसे पसन्दीदा विषय ही भूल जाता है। क्यों न कहें, विषयों के न होते हुए भी मन जब कल्पना करके विषय का उपभोग करता है, तो उसने विषय रस का उपभोग तो कर ही लिया, चाहे स्थूल में किसी ने नहीं देखा। तब ऊपर से यदि आप बहुत शरीफ़ आदमी भी दिखें, किन्तु वास्तव में आप नित्य उपभोग करने वाले दुराचारी हैं, बाहर जो शरीफ़ बनते हैं, वह मिथ्याचार है। आप जो अन्दर से नहीं हैं, लोगों को वैसा दिखा कर उन्हें धोखा देते है। इस नाते आप मिथ्याचारी हैं और धोखेबाज़ हैं।

1. जब मन की विषय में रुचि ही नहीं रहती और जब मन ही विषयों में नहीं रहता, तब उस विषय के त्याग की बात ही विस्मृत हो जाती है।

2. ज्यों दुनिया में अनेकों विषय हैं, जिनको आप देख कर भी नहीं देखते, क्योंकि उनमें आपको दिलचस्पी नहीं होती, इसी तरह जो विषय छूट जायेगा, उसकी और आपका ध्यान ही नहीं जायेगा। इसलिये भगवान कह रहे हैं कि विषय को छोड़ भी दो, फिर भी यदि आपको उस विषय का ध्यान आता है, यानि आप स्थूल विषय छोड़ देते हैं, किन्तु उसके सूक्ष्म रस का तो मन उपभोग करता है, तब आप मिथ्याचारी हैं।

नन्हीं! संन्यास लिया नहीं जाता, संन्यास हो जाता है। विषय त्याग की बात नहीं होती, भगवान संग त्याग करने के लिये कहते हैं। त्याग किया नहीं जाता, विषय से मन को फेर लिया जाता है। मन हट ही जाता है यदि मन की रुचि बदल जाये।

इसलिये भगवान ने अर्जुन को इन्द्रियों को वश में करने की विधि बताते हुए कहा, ‘मत् परा’ (12/6) यानि, मुझ में तेरे मन की भक्ति हो, मेरे परायण हो जाओ। यदि मन ही किसी के प्रेम में खो गया, तो आपको विषय भूल ही जायेंगे।

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