अध्याय १
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्।।१९।।
संजय कहते हैं धृतराष्ट्र से :
शब्दार्थ :
१. और उस (सामूहिक) भयानक शब्द (गुंजार) ने,
२. आकाश और पृथ्वी को भी,
३. शब्दायमान करते हुए,
४. धृतराष्ट्र के पुत्रों के,
५. हृदयों को विदीर्ण कर दिया।
तत्व विस्तार :
देख नन्हीं! असुरत्व देवत्व संग्राम आरम्भ हुआ :
1. सम्पूर्ण सद्वृत्तियाँ मिल कर दुर्वृत्तियों को ललकारने लगीं।
2. या कहो देवताओं ने असुरों पर युद्ध करने की घोषणा कर दी।
3. या कहो एक बार सद्वृत्ति रूप धर कर श्रेष्ठ गण साधुता संरक्षण के लिये इस भीषण युद्ध के लिये तैयार हो गये।
4. अत्याचार मिटाने को, अत्याचारी दमन को सद्वृत्तियों ने अपने शंख बजाये। जब सम्पूर्ण सद्गुण संरक्षकगण मिल कर अत्याचारी पर युद्ध की घोषणा कर देते हैं, तो अत्याचारी लोग घबरा जाते हैं।
यही धृतराष्ट्र के पुत्रों की भी गति हुई। इतनी भयंकर गुंजार सुन कर वह घबरा गये। अत्याचारी से सब डरते हैं और उसका सामना नहीं करते, पर यदि कोई सामने खड़ा हो ही जाये तो अत्याचारी घबरा जाते हैं।
भई! अहंकार घबरा ही जाता है। अहंकार का आसन डोल ही जाता है। जीवन में भी आसुरी गुण पूर्ण लोग आयु भर अपने संरक्षण के ही यत्न करते रहते हैं, वह तो प्रतिरोध सह ही नहीं सकते। विरोधी से वह इतना डरते हैं कि उसे कुचल ही देना चाहते हैं। इसी विधि जब धृतराष्ट्र पुत्रों ने पाण्डव तथा पाण्डु सहयोगियों की सामूहिक शंख गुंजार सुनी तो उनके हृदय विदीर्ण होने लगे। दुष्ट तथा अत्याचारी यही समझते हैं कि हमारा सामना कोई नहीं कर सकता और गर कोई बलवान सामने आ ही जाये तो वह तड़प जाते हैं।